Site icon Youth Ki Awaaz

“बॉयज़ लॉकर रूम जैसी घटनाओं के दोषी हम स्वयं हैं”

Boys locker room

Boys locker room

छोटे थे तो माँ ने सिखाया था कि किसी लड़की के अगर पैर लग जाए तो तुरंत उसके पैर छूना, क्योंकि लड़की देवी का रूप होती है। जब माँ दोनों नवरात्रों में कन्यायों को बुलाकर, उनके पैर पूजती थी तो उसकी सिखाई बात अंदर तक घर कर जाती थी।

जब पिता की सिखाई बातें मन में बैठती चली गई

वहीं, पड़ोस की सब औरतें हमारे लिए चाची, ताई, बुआ और दादी हुआ करती थीं। शिशु मंदिर में पढ़ने गए तो वहां भी सब लड़कियां बहनें थी जो राखी भी बांधती थीं।

बड़े हुए तो घर में दूरदर्शन पर रामायण जैसा धारावाहिक देखने को मिलता था ना कि चिकनी-चमेली और फेविकॉल। पिता जी रोज शाम को धर्म, आध्यात्म और नैतिकता की चर्चा करते थे, जिससे संस्कार मन में बैठते चले गए।

मर्यादा का पाठ घर में हर रोज़ ही पढ़ाया जाता था। परिणाम यह हुआ कि स्त्री का सम्मान जीवन का भाग बन गया, जिसके लिए अलग से कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।

संस्कारों और तहज़ीब की उपज है बॉयज़ लॉकर रूम की घटना

आजकल तो विद्यालयों में ड्यूड, बेबी, हॉटी और ना जाने क्या-क्या शब्द प्रयोग होते हैं। उन्हीं संस्कारों और तहज़ीब की उपज है ‘बॉयज़ लॉकर रूम’ की असभ्य अश्लील घटना। आखिर आज इतना हो हल्ला क्यों मचा है? यह सामने आ गया इसलिए?

यह तो पिछले कई वर्षों से ही होता आ रहा है बस हमने गंभीरता आज दिखाई है। हमने कभी बच्चों को यह समझाने का प्रयास ही नहीं किया कि क्या सही है और क्या गलत? हम तो सिर्फ अपनी ज़िंदगी में व्यस्त रहे।

शिक्षक भी वर्तमान समय में असहाय हो चुके हैं

शिक्षक भी क्या करें, आजकल सख्त नियमों के पुलिंदे को उन पर लाद दिया गया है जिस कारण वे एक दफे भी बच्चों को डांट नहीं सकते। मेरे पिता जी बताया करते हैं कि पहले जब वो पढ़ा करते थे तो मास्टर जी का एक अलग रौब था।

ज़रा सी गलती पर जब छड़ी उतरती थी तब वो गलती पुनः दोहराने की हिमाकत कोई ना कर सकता था और अगर कोई हिम्मत जुटा भी लिया तो नाम तो विद्यालय से पृथक होता ही था, साथ ही साथ कहीं और नाम लिख जाए इसकी भी संभावनाएं कम ही थीं।

गुरु से अदब और तहज़ीब का जो पाठ हम पढ़कर निकले हैं, वही संस्कार तो हमने अपनी आने वाले पीढ़ी को दिए हैं। आज का दौर बदल गया है। बच्चों में ना वो अदब है और ना ही तहज़ीब।

मैंने विद्यालय के बच्चों को सिगरेट के छल्ले बनाते देखा है

मैंने विद्यालयों के बच्चों को सिगरेट के छल्ले बनाते और शराब के पैमानों को हाथों में मचलते देखा है। बड़ी गुस्ताखी तो तब है जब यह सब उन शिक्षकों की जानकारी में हो रहा जो ज्ञान का पुंज प्रस्फुटित करने को रखे गए हैं।

दोष उन शिक्षकों का नहीं है, क्योंकि वे तो चाहते हैं उन रिवाज़ो पर विराम लगा देना मगर उनके अधिकारों को इस तरह नियंत्रित किया गया है कि बच्चे कब हाथ से बाहर हो गए पता नहीं चला।

कुछ दिन पहले मैंने एक वेब सीरीज़ देखी थी

चंद दिन पहले की बात है “Class of 2020” वेब सीरीज़ देख रहा था। एक विद्यालय परिवेश पर बनी वेब सीरीज़ थी वह। उस वेब सीरीज़ में बारहवीं कक्षा के स्टूडेंट्स के समूह को दिखाया गया है।

पूरी वेब सीरीज़ सेक्स, शराब, ड्रग्स और फूहड़ता के इर्द-गिर्द ही घूमती है। जब ऐसे कंटेंट विद्यालय के स्टूडेंट्स देखते होंगे तो उन पर क्या प्रभाव पड़ता होगा? यह चिंतनीय विषय है।

वेब सीरीज़ पर उम्र की दी जाने वाली चेतावनी महज़ दिखावा है। उसका इससे दूर-दूर तक बच्चों से कोई लेना-देना नहीं है। विद्यालयी स्टूडेंट्स को बिगाड़ने में सर्वाधिक योगदान इन बढ़ते वेब सीरीज़ के बाज़ार का है। जहां हर वेब सीरीज़ का प्रारम्भ सिर्फ सेक्स से होता है और सेक्स पर खत्म।

सोचिए जब समाज में चल चित्र स्वयं की अस्मिता खो बैठे हो तो वहां हम स्वस्थ समाज की परिकल्पना कैसे कर सकते हैं। ‘बॉयज लॉकर रूम’ जैसे समूह की घटना से हम आज भी नहीं जागे तो यकीन मानिए हम पैसे कमाने की होड़ में बेशक आगे निकल जाएं मगर संस्कार व संस्कृति के बचाव में कोसों पीछे छूट जाएंगे। जहां से फिर कभी लौट पाना संभव प्रतीत नहीं होता है।

Exit mobile version