जालना से भुसावल की ओर पैदल जा रहे मज़दूर शहडोल मध्यप्रदेश के रहने वाले थे, जो अपने घर लौट रहे थे। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश को जाने वाली ट्रेनें भुसावल में साफ-सफाई, पानी आदि के लिए रुकती हैं, तो इन मज़दूरों को उम्मीद थी कि शायद वह भुसावल में ट्रेन पकड़ लेंगे।
चलते-चलते थक गए थे मज़दूर
घर जाने की उम्मीद में ये मज़दूर जालना से भुसावल के बीच दो-ढाई सौ किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए पैदल ही चल दिए। जब थक गए तो रेल की पटरियों के किनारे ही बैठ गए। थकान के कारण पटरियों पर ही सो गए, इसी बीच ट्रेन ने सुबह सवा पांच बजे उन्हें कुचल दिया।
रेल की पटरियों पर आत्महत्या के लिए लेटने की बात इनके बारे में कही तो ज़रूर गई लेकिन इन मज़दूरों की मंशा यकीनन ऐसी नहीं थी। वे तो सिर्फ अपने घर लौटना चाहते थे।
लॉकडाउन ने ना सिर्फ इन मज़दूरों की रोज़ी-रोटी ही छीनी, बल्कि उनका अपने घर लौटना भी एक चुनौती के समान हो गया। पेट में अन्न नहीं, पॉकेट में पैसे नहीं, बस हौसले के सहारे पगडंडी पकड़े चल दिए अपने झोपड़ीनुमा आशियाने की ओर। घर लौटने की चाह में कोई मज़दूर ट्रेन से कुचला गया, कोई ट्रक से रौंद दिया गया।
सरकारी दावों की सच्चाई
बेबस मज़दूरों की मौत को हत्या कहा जाएगा या घटना, इस सवाल का जवाब तो हम नहीं जानते हैं मगर इतना ज़रूर है कि तमाम वादों और दावों के बावजूद मज़दूर आज भी गाँव जाने के लिए अपनी जान खतरे में डालने को मजबूर हैं।
शायद आपको याद हो कि कुछ दिन पहले महाराष्ट्र में ही घर की तरफ पैदल जा रहे चार मज़दूरों की सड़क हादसे में मौत हो गई थी। आपको वो वायरल तस्वीरें भी याद होंगी जिनमें मज़दूर कभी सीमेंट मिक्सर में छिपकर जाते पकड़े जाते हैं, तो कभी प्याज़ के ट्रक में, तो कभी नदी में उतर जाते हैं।
इतना निर्लज्ज कैसे हो रहा है समाज
गुजरात में घर जाने की ज़िद्द पर अड़े मज़दूरों पर जिस तरह से आंसू गैस के गोले छोड़े गए आपने वह भी देखा होगा फिर भी बड़ी निर्लज्जता से कह दिया जाता है कि मज़दूर जन-धन खाते में मिलने वाले पैसे की लालच में जा रहे हैं। कहा जाता है कि वे राज्य सरकार से मिलने वाले 1000 रुपये के लिए जाना चाहते हैं।
लोग शराब की कतारों में खड़े होते हैं तो खुद को पत्रकार कहने वाले लोग ट्वीट करते हैं कि शराब के लिए पैसे हैं मगर रेल के किराए के लिए नहीं हैं। आज जब औरंगाबाद में ट्रेन से कटकर 16 मज़दूरों की मौत हो जाती है तो कहा जा रहा है कि वे पटरी पर सो ही क्यों रहे थे।
सिस्टम है मज़दूरों की मौत का ज़िम्मेदार
यहां भी दोष उस सिस्टम को नहीं दिया जा रहा है जिसने इन मज़दूरों के मुंह का निवाला छीना। जिसने उसे मौत की आंखों में आंखे डालकर अपने घर लौटने को मजबूर कर दिया। दोष तो बल्कि खुद उस गरीब मज़दूर पर ही डाला जा रहा है।
ऐसा कहने और सोचने वालों में थोड़ी भी इंसानियत बची हो तो इस सच्चाई को भी समझिए। अगर उन मज़दूरों को जालना से भुसावल स्टेशन तक पहुंचने का कोई इंतज़ाम होता या उनका आसानी से रजिस्ट्रेशन हो जाता तो वे पैदल क्यों चलते?
फिर शायद मज़दूर दो-ढाई सौ किलोमीटर चलने को मजबूर ना होते और न ही थककर पटरी पर बैठते, ना उन्हें नींद आती और ना ट्रेन बेरहमी से उन्हें कुचलकर चली जाती।