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बॉयज़ लॉकर रूम: “काश माँ-बाप और टीचर्स बच्चों को सेक्स एजुकेशन की सही जानकारी दे पाते”

bois locker room

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कोरोना संक्रमण के बीच इन दिनों बॉयज़ लॉकर रूम का मामला काफी सुर्खियों में है। दक्षिण दिल्ली में कुछ लड़कों ने मिलकर इंस्टाग्राम पर एक ग्रुप बनाया जिसमें लड़कियों की आपत्तिजनक तस्वीरें पोस्ट करने से लेकर उनसे साथ रेप करने की योजनाओं पर बात होती थी।

मामला तब प्रकाश में आया जब साउथ दिल्ली की एक लड़की ने इस चैट के स्क्रीनशॉट को शिकायत के तौर पर पब्लिक कर दिया। हद तो तब हो गई जब बॉयज़ लॉकर रूम से संबंधित लड़कों ने स्क्रीनशॉट वायरल होने का गुस्सा निकालने के लिए लड़कियों की न्यूड तस्वीरें वायरल करने की धमकी देने लगे।

मामले में अब तक क्या-क्या हुआ?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

बहरहाल, दक्षिण दिल्ली पुलिस ने साइबर सेल से इस ग्रुप के सभी सदस्यों की जानकारी मांगी है। इसके अलावा इंस्टाग्राम से भी तमाम अकाउंट्स की जानकारी मांगी गई है।

वहीं, दिल्ली पुलिस ने आईटी एक्ट 67 और 67 ‘ए’ के तहत मामला दर्ज़ किया है। साइबर सेल ने भी आईपीसी की धारा 465, 469, 471 और 509 के तहत मामला दर्ज़ कर लिया है।

इनमें से पहली तीन धाराएं धोखाधड़ी के खिलाफ और 509 महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर लगाई गई हैं। ये सभी स्टूडेंट्स कक्षा 10 तक के बताए जा रहे हैं। दिल्ली के एक नामी स्कूल के 15 वर्षीय स्टूडेंट को गिरफ्तार भी किया और साथ ही 22 अन्य ग्रुप सदस्यों की जानकारी भी जुटा ली गई है।

सेक्स एजुकेशन के लिए कोई स्पेस नहीं है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

लेकिन प्रश्न क्या केवल ग्रुप के लड़कों के परिचय और सज़ा का है? जैसा कि खबरों से स्पष्ट है कि सभी बच्चे अच्छे नामी स्कूलों से आते हैं। बॉयज़ लॉकर रूम जैसी घटनाएं क्या सिर्फ उन अवयस्क बच्चों को ही कटघरे में खड़ा करती हैं।

क्या हम आप और यह समाज इस घटना को चुपचाप खड़े देख सकता है? एक मानसिकता घरों से स्कूल तक हमारे ज़हन में बैठा दी जाती है, जो हमें बार-बार बताती है कि लड़का और लड़की एक-दूसरे से बिल्कुल अलग होते हैं।

जबकि सेक्स और शाररिक ज्ञान की सही जानकारी देना माँ-बाप और शिक्षक का एक ज़रूरी कर्तव्य होना चाहिए लेकिन ऐसे किसी भी सवाल पर खामोशी ओढ़ ली जाती है।

प्रिविलेज़्ड क्लास के बच्चों में ऐसी मानसिकता के मायने

चलिए एक पल के लिए यह मान लेते हैं कि वंचित समुदाय के बच्चे यदि होते तो उनमें परिवेश के हिसाब से गाली-गलौच और थोड़ी असंवेदनशीलता हो सकती है मगर प्रिविलेज़्ड क्लास से आने वाले बच्चों से ऐसी चीज़ों की उम्मीद दुखद है फिर उनके पेरेन्ट्स के शिक्षित होने का क्या मतलब है?

यह प्रवृर्ति कैसे किसी के मन में घर कर बैठती है कि एक लड़की को अपमानित करना है तो उसकी न्यूड फोटो डाल दो, उसे सबक सिखाना है तो उसका रेप कर डालो।

हमने रेप कल्चर की नींव रख दी है!

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

हम यह मानकर चलते हैं कि पुरुष तो होते ही ऐसे ही हैं मगर 15-19 साल के बीच के ये बच्चे किश श्रेणी में रखे जाने चाहिए? क्या उन्हें दंड भर दे देने से सब ठीक हो जाएगा? क्या इस तरह की घटनाएं फिर नहीं घटेंगी? मुद्दा यहां सज़ा का नहीं, बल्कि उस सोच का है जो इनकी बुद्धि के साथ विकसित हुई है।

लेकिन रेप कल्चर जैसी विचारधारा को बल देने में हमारा समाज कब पीछे रहा है। महिलाओं को लेकर फूहड़ मज़ाक, उनके नाम पर आदतन हंस-हंसकर दी जाने वाली गालियां, उनकी शारीरिक बनावट पर होने वाले मज़ाक किसी भी सामान्य से व्हाट्सएप, फेसबुक ग्रुप और चाय की चर्चाओं में आम होते हैं।

फिर यदि कुछ लड़कों ने इस पर बात कर ली तो क्या बुरा हुआ! हां, सबको धक्का इस बात का लगा कि ये प्राइवेट चैट आम हो गई। वैसे भी जब कोई लड़की किसी मुद्दे के पक्ष-विपक्ष में खड़ी होती हैं तो उनके साथ अभद्रता करना, उनके चरित्र का विश्लेषण करना हर किसी का कर्तव्य बन जाता है। फेसबुक, ट्विटर इसके सबसे सरल माध्यम हैं।

यदि आप वहां लिखी टिप्पणियां पढ़ेंगे तो पाएंगे किस तरह खुलेआम बॉयज़ लॉकर रूम जैसी बातों को लिखा और पढ़ा जा रहा है। रेप कल्चर की मानसिकता भारत में कोई नई बात नहीं है लेकिन जैसे-जैसे सोशल मीडिया का फैलाव बढा है, इस तरह की घटनाएं आम हो चुकी हैं। कोई आप पर अभद्र टिप्पणी करता है, तो आप उसे ब्लॉक या रिपोर्ट कर दीजिए बस हो गया काम।

जैसा कि एक चैट में लड़का कह रहा है, “उसके (लड़की) साथ हम बहुत कुछ कर सकते हैं। मैं 2-4 लड़कों को और बुला लेता हूं मिलकर गैंगरेप करते हैं।” मतलब आप अंदाज़ा लगाइए कि 15-16 साल के बच्चे किस तरह बड़े हो रहे हैं। क्या इसका सारा दोष स्मार्ट फोन्स या पॉर्न वेबसाइट्स को दिया जा सकता है?

पितृसत्तात्मक विचारधारा की बलि देनी होगी

बच्चे क्या कर रहे हैं और क्या नहीं, इस पर नज़र रखना माँ-बाप की नैतिक ज़िम्मेदारी तो है मगर हमें भी सोचना होगा कि समाज में हम कैसी विचारधारा फैला रहे हैं।

पितृसत्तात्मक विचारधारा इस तरह की घटनाओं को बल देती है। उदाहरण के तौर पर आप कोई कार्टून फिल्म देखिए, कोई डेली सोप सीरियल या कोई नेटफ्लिक्स सीरीज़, एक चुपचाप सब सहती लड़की आपको हर किरदार में मिल जाएगी और ये किरदार बालमन में गहरे उतरते हैं।

लड़के हों या लड़कीयां, वे बहुत हद तक इस धारणा को मज़बूत कर लेते हैं कि ऐसा ही होता है और इसमें कुछ गलत नहीं है। शायद ऐसी ही धारणा धारणाओं का परिणाम है जहां इस ग्रुप के एक चैट में एक लड़का कह रहा है, “सारी न्यूड पब्लिक कर दो फिर कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगी।”

ये विचार एक 15-16 साल के बच्चे में किस तरह घर कर गया कि एक लड़की की इज़्जत सिर्फ उसका शरीर है। हम दिन-रात कहानियों और किरदारों के माध्यम से जब उनके मन में ये बोते चले जा रहे हैं फिर उनसे संवेदनशीलता की उम्मीद ही क्यों?

कोई भी सज़ा इस तरह की घटनाओं को खत्म नहीं कर सकती हैं। इस तरह की घटनाएं एक विकृत मानसिकता का नतीजा होती हैं।


संदर्भ- द लल्लनटॉप

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