इस देश को आज़ाद हुए 70 वर्ष से अधिक हो गए है। बीते 70 वर्षो में इस देश ने अनगिनत चीज़े देखी हैं। सरकारों को बनते-बिगड़ते देखा, हुक्मरानो को सत्ता के अहंकार में मदमस्त होकर जनता को त्रस्त करते हुए देखा और जनता द्वारा इन्हीं हुक्मरानों को अर्श से फर्श पर लाते हुए देखा है।
राजनीतिक दल यह ना भूलें कि विजय अंततः जनता की ही होगी
यह सब संभव हो पाया तो केवल इसलिए क्योंकि इस देश के लोकतंत्र की जड़ें इतनी मज़बूत हैं कि कोई राजनीतिक दल चाहे कितने भी प्रयास कर ले, अंतत: जीत आम जनता की ही होगी, क्योंकि यहां शासक जनता का प्रतिनिधि मात्र है।
भारतवर्ष के लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी उसके संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए विरोध का अधिकार है और यही हमें हमारे पड़ोसी मुल्क चीन और पाकिस्तान से भिन्न बनाता है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे शासकों ने अपने-अपने समय में इस विरोध को कुचलने की साज़िश ना की है।
विरोध को दबा देने की मंशा सभी राजनीतिक दलों की रही है
सरकार चाहे जिस भी राजनीतिक दल की रही हो मगर विरोध को सामने या पीछे से खत्म करने का इतिहास लगभग सभी दलों का रहा है।
बीते 4-5 वर्षों से जो राजनीतिक दल भारत के मानचित्र पर अपना कमल खिलाए हुए हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि जब कभी भारतीय इतिहास में सत्ता के अहंकार में चूर होकर आवाज़ों को दबाने की सूची बनेगी, तो यह दल इमरजेंसी लगाने वाले राजनीतिक दल से कुछ कदम आगे या पीछे ही खड़ा होगी।
सनद रहे लोकतंत्र में सरकार बहुमत से चुनी जाती है
लोकतंत्र में बहुमत से सरकार चुनी जाती है मगर बहुमत से चुनी हुई सरकार का कर्तव्य अल्पमत का सम्मान करना व उनके हितों की रक्षा करना भी है।
देश के संसद के बीते शीतकालीन सत्र में नागरिकता संसोधन कानून पारित कर भारत की भौगोलिक सीमा से सटे देशों में रह रहे धार्मिक अल्पसंख्यों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान किया गया। इन देशो के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय को इस कानून में नागरिकता के दायरे से बाहर रखा गया।
नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में हुए प्रदर्शन
जिस प्रकार एक लोकतंत्र में सरकार द्वारा लिए गए किसी निर्णय का समर्थन व विरोध होता है, ठीक इस कानून के साथ भी वही हुआ।
विरोध प्रदर्शन की अगुवाई देश की राजधानी में देश के शीर्ष दस विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल जामिया मिलिया इस्लामिया ने की। धीरे-धीरे इस कानून के प्रति विरोध में देश के कोने-कोने में आंदोलन हुए।
ये सभी घटनाक्रम दिसंबर से फरवरी के माह के हैं। आज एक बार फिर इस कानून के खिलाफ हुआ आंदोलन खबरों में है मगर इस बार विरोध की खबरों के लिए नहीं, बल्कि मामला कुछ और है।
सत्ता के अहंकार में मदमस्त सत्ताधीशों द्वारा इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए कुछ स्टूडेंट्स को वैश्विक महामारी कोरोना के बीच कानून का फायदा उठाकर सलाखों के पीछे डाल देने के कायरता पूर्ण कृत्य के लिए।
सफूरा जरगर की गिरफ्तारी क्या एक साज़िश है?
दिसंबर माह में हुए विरोध प्रदर्शन में जामिया कोर्डिनेशन कमेटी का गठन हुआ जो विरोध करने वाले समूह के चेहरे के तौर पर था। गौरतलब है कि इस कानून के विरोध प्रदर्शन के दौर में ही दो समुदायों के बीच उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए थे।
अब इन्ही दंगों की पड़ताल के तहत दिल्ली पुलिस ने जामिया से एम.फिल की छात्रा सफूरा जरगर को गिरफ्तार किया। सफूरा के उपर उत्तर पूर्वी दिल्ली के जाफराबाद में हिंसा की साज़िश का आरोप है। अब प्रश्न यहां यह नहीं है कि सफूरा बेगुनाह है या नहीं, बल्कि सवाल इससे कहीं अधिक बड़ा है।
लोकतंत्र में विरोध करना क्या एक अपराध है?
सफूरा जरगर को जिस कानून के तहत तिहाड़ जेल में रखा गया है, वर्ष 2019 में केंद्र की सरकार ने उस कानून में कुछ संसोधन किए और शायद उसका ही यह परिणाम है कि एक कानून का विरोध करने वाली छात्रा सलाखों के पीछे है। जिस कानून के तहत सफूरा को हिरासत में लिया गया है, वह है गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून।
इस कानून के तहत सरकार किसी भी तरह से आतंकी गतिविधियों में शामिल संगठन या व्यक्ति को आतंकी घोषित कर सकती है। सरकार सबूत नहीं होने की हालत में भी सिर्फ शक के आधार पर ही किसी को आतंकी घोषित कर सकती है।
क्या अब इस देश में सत्ता के विरोध में जाना आतंकवादी होना हो गया है या फिर लोकतंत्र में विरोध करना एक अपराध?
यदि विरोध में सम्मिलित होना आतंकवाद की श्रेणी में है, तो कपिल मिश्रा जैसे लोगों पर चुप्पी क्यों?
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सफूरा जरगर ने जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे बैठी नागरिकता संसोधन कानून का विरोध कर रही महिलाओं को सम्बोधित किया था। इसी आधार पर उन्हें इस कानून के अंतर्गत हिरासत में लिया है।
यदि किसी प्रदर्शन को सम्बोधित करना आतंकवादी हरकत में सम्मिलित होने के समान है, तो इसी कानून के अंतर्गत कुछ गिरफ्तारी कपिल मिश्रा जैसे लोगो की भी बनती है जिन्होंने खुले तौर पर दंगों की चेतावनी दी थी।
एक विवाहित स्त्री के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाना इस समाज पर सवालिया निशान है
ध्यान देने की बात है कि सफूरा जरगर की गिरफ्तारी के बाद जिस प्रकार से खुद को सभ्य कहने की खुशफहमी में रहने वाले भारतीय समाज के लोगों ने सोशल मीडिया पर उनका चरित्र चित्रण किया है, वह इस देश के पुरुषों की मानसिकता का प्रमाण है।
जिस तरह एक विवाहित स्त्री जो तीन माह की गर्भवती है, उसके उपर एक विशेष सोच रखने वाले लोगों ने अनर्गल बातें कहीं, यह नारी को देवी के रूप में पूजने वाले देश की वास्तविकता को उजागर करता है।
एक राजनीतिक दल के प्रति अंधप्रेम की माया जाल में फंंसे लोग जब खुलेआम ट्विटर और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर ठीक उसी प्रकार घृणित कार्य को दोहरा रहे थे, जैसे भरी सभा में महाभारत में द्रौपदी को वेश्या कहा गया था।
एक छात्रा से इतना भयभीत हो गई सरकार कि उसको सलाखों के पीछे ही डाल दिया!
आज के समय में जहां दिन-प्रतिदिन न्याय की प्रमाणिकता पर प्रश्न उठ रहे हैं, वहां न्यायालय और न्यायाधीशों की चुप्पी भयावह है।
नारी को लेकर नए नारे देने वाला यह देश जब एक छात्रा को केवल इसलिए सलाखों के पीछे डाल देता है कि सरकार द्वारा बनाए गए एक कानून के विरोध प्रदर्शन का वह चेहरा है, फिर तो नारी सशक्तिकरण की बाते बेबुनियाद और बेईमानी प्रतीत होती है।
कारागार में डालने का निर्णय न्यायालय पर छोड़ा जाता तो ज़्यादा न्यायसंगत था
एक न्यायशील प्रणाली में होना यह चाहिए था कि यदि पुलिसिया तंत्र को सफूरा पर किसी प्रकार का शक था, तो उसे रोज़ थाने में हाजिरी का फरमान देना चाहिए था।
उससे कड़ी पूछताछ की जा सकती थी और यदि उसकी भूमिका प्रमाण के साथ साबित हो जाती तो उसे उस कारागार में डालने का निर्णय न्यायपालिका पर छोड़ना चाहिए था।
ध्यान रहे कि अगला नंबर आपका है
आज बात केवल किसी सफूरा जरगर की नहीं है, बल्कि चिंता का विषय तो यह है कि अगली बारी आप में-हम में से किसी की भी हो सकती है।
यदि हम सत्ता में बैठे लोगो का, उनकी बातों का, उनके द्वारा बनाए गए कानूनों का विरोध करते रहें तो ये हुक्मरान हमें बख्शेगें नहीं!
क्या लोकतंत्र में विरोध करने का अधिकार समाप्त कर दिया गया है?
आज हंगामा केवल एक तीन माह की गर्भवती महिला जो कि विद्यार्थी भी है, उसकी गिरफ्तारी का नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक कानून के गलत फायदे का है।
बात किसी एक धर्म विशेष की नहीं है, बल्कि बात लोकतंत्र में विरोध करने के अधिकार की है, जिस पर बीते कुछ वर्षों में अनेक प्रहार हुए हैं।
बात सरकार से प्रश्न पूछने पर राष्ट्र-विरोधी करार दिए जाने की भी नहीं है, बल्कि बात संविधान के हितों की है। दुःख तो केवल इस बात का है कि जिसे तरन्नुम कानपुरी ने कुछ इस प्रकार लिखा-
ऐ क़ाफ़िले वालों, तुम इतना भी नहीं समझे
लूटा है तुम्हें रहज़न ने, रहबर के इशारे पर