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आखिर कब सरकार मजदूरों कि समस्या सुनेगी?

हम सब ने यह तो सुना ही होगा कि कठोर परिश्रम से ही सफलता मिलती है पर उसके लिए जान भी गवानी पड़ेगी 10-15 दिनों तक भूखे रहना पड़ेगा ये शायद नहीं सुना होगा। बहुत आसान लगता है घर में बैठ कर यह सोचना की लॉक डाउन कब खुलेगा। हमलोग सब जहा घर में बैठ के यह सोच रहें है कि आज कौन सा स्वादिष्ट भोजन बनाएंगे वहीं एक तरफ श्रमिक मजदूर सोच रहे की घर कब जाएंगे।

जबसे इस महामारी का आगमन हुआ है पूरा देश उथल पुथल सी गई है लाखो लोग मर रहे है कोई बीमारी से तो कोई भूख से। इस महामारी में सबसे ज़्यादा असर मजदूरों को हुआ है। जबसे लॉकडाउन शुरू हुआ है हमारे श्रमिक मजदूर सोच में पड़ गए की अब क्या होगा जिस मकसद से आए थे वह कार्य ही रुक गया जिस एक वक्त की रोटी के लिए इतनी दूर सफर करके आए थे पैसे कमाने अपना घर चलाने के लिए वह ही रुक गया अब जाए तो जाए किधर। ना पैसे है ना खाने को कुछ घर भी कैसे जाए क्यूंकि सरकार ने तो सारे रास्ते बन्द कर दिए है, ना ट्रेन है ना बसे अब क्या करे हम गरीब मजदूर। गद्दी में बैठी सरकार ने आश्वासन दिया कि उन्हें पूर्ण रूप से मदद कि जाएगी किसी तरह की परेशानी नहीं होगी आप जहा है वहीं रहे बस। पर अचानक से खबरों का सिलसिला शुरू हो गया लोग भूख से तड़प रहे थे किसी तरह से कोई सहायता नहीं मिल रही थी कोई भूख से मर रहा था तो कोई मदद के लिए गुहार लगाए जा रहा था। आखिर समय चलता गया और मुश्किलें बढ़ती गई। फिर मजदूरों ने ठान ली कि अब जैसे भी हो हम पैदल चल जाएंगे अपने घर कम से कम रहने की जगह तो रहेगी एक वक़्त की रोटी तो मिलेगी। और क्या था चल पड़े अपनी राह अपने घर की ओर। हजारों सो किलोमीटर चलकर अपने घर तक पहुंचना चाहते थे बस। रास्ते से जाते तो पुलिस की लाठियां मिलती तो इन लोगो ने पटरियों पर चलना शुरू कर दिया। पर क्या पता था यह पट्रिया उन्हें आगे चलने के लिए मुश्किल के देंगी। सरकार ने व्यवस्था तो कुछ हद तक शुरू कर दी पर पैसे ना रहने के कारण इस व्यवस्था का लाभ नहीं ले पा रहे है।शायद सरकार को गरीब लोग नहीं दिखे वरना वह इन्हे फ्री में हवाई सफर करवाने वाले थे। गद्दी पर बैठी सरकार को गरीब मजदूर लोग नहीं दिखे जो कड़कड़ाती धूप में नंगे पैर अपने पूरे परिवार के साथ चल रहे है, हाथ में एक पैसा नहीं, खाने को एक दाना नहीं, बस चल रहे है कि अपने घर तक पहुंच जाए।

मेरा एक ही सवाल है हमारे देश की सरकार से की अगर इस कॉरॉना बीमारी से देश को बचाना है था तो उनके बारे में क्यों नहीं सोचा जिनके सहारे हम जी रहे है, उन मजदूरों को क्यों नहीं बचाया का रहा है जिन लोगो के पास खुद का तो छत नहीं है पर हमलोगो के लिए छत बनाते है। कितनी सारी खबर दिन रात सुनने को मिल रही है। मैं कुछ घटनाएं आप लोगो को इसपर आकर्षित करना चाहता हूं, हाल ही में पंजाब में एक मजदूर अपने घर लौट रहे थे और बीमार होने के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां डॉक्टर के लापरवाही के कारण उस इंसान की मौत हो गई। वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में डॉक्टर और प्रशासन के लापरवाही के चलते एक मजदूर की मौत हो गई। मौतो का सिलसला यही नहीं रुका सबसे बड़ी घटना जब मजदूरों कि मौत ट्रेन से कट कर हो गई। वह खोफनाक सुबह जिसे सुनकर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते है। वह थक के चुर हो चुके थे चलते चलते की उन्होंने पटरियों पर ही आराम करने का सोचा पर उन्हें क्या पता था वह इतने थक चुके है कि वो कुछ सोच नहीं पाए उन्हें एहसास तक नहीं हुआ कि ट्रेन आ रही है, शरीर का एक एक अंग कट चुके थे रोटियां वह कुछ सामान मिले इससे पता चलता है कि वह अपने घर जाने के लिए एक दो रोटी खाने के लिए रखे थे ताकि वह अपने घर तक पहुंच सके लेकिन सरकार को क्या फर्क पड़ता है आखिर वह मजदूर ही तो थे कोई विधायक या सांसद नहीं था या कोई उच्च पदाधिकारी नहीं था। वहीं दूसरी ओर देखे तो उत्तरप्रदेश के औरैया सड़क दुर्घंटना में झारखण्ड के 11 श्रमविरो ने सरकार की लापरवाही का खामियाजा आपने जान की आहुति के रूप में दिया सभी लोग राजस्थान के जयपुर में मोबाइल फैक्ट्री में मजदूरी करते थे। यह सवाल तो उठ ता है क्या गलती है इनकी क्या वो मजदूर है।

हम जहा अपने मां के साथ घर पर बैठ कर खेल रहे थे वहीं दूसरी तरफ बिहार के मुज्जफरपुर स्टेशन में नादान छोटे बच्चे अपनी मरी हुई मां के साथ जो चार दिन से भूखी थी उसके साथ खेल रहा था। उस बच्चे को अंदाज़ा भी नहीं था कि जिस मां के साथ वो खेल रहा था उसे उठाने का कोशिश कर रहा था वह अब कभी नहीं उठेगी। उस मृत महिला के पति ने बताया कि वह चार दिन से भूखी थी गुजरात में भीषण गरमी भी थी सरकार की कोई मदद नहीं और सरकार पर आरोप लगाया है कि सिर्फ उनके लापरवाही के कारण आज ये सब हुआ।

और ऐसी कई घटनाएं है शायद इसपर एक किताब लिख दू। पर मेरे लिखने से अगर गद्दी पर बैठी सरकार तक मेरी आवाज़ पहुंच जाएं तो में किताब लिखने को भी तैयार हूं। अगर ये मौते इस बीमारी के वजह से हुई होती तो मामले को समझा जा सकता था पर क्या ये सही में इस बीमारी से मरे है शायद ही मुझे लगता है। सिर्फ ट्रेनों को चला देने से नहीं होता शायद उन्हें खाने की व्यवस्था भी देनी चाहिए। 70-80 घंटो की सफर में क्या हमारी सेवाएं इतनी कम हो गई है कि एक समय का खाना भी नहीं मिल रहा। यह सारी घटनाएं सुनने में भारी लगती है दर्द भी उतनी ही देती है। पर हमारे देश की सरकार उनके बारे सोचती तो शायद आज ये सब नहीं होता वह जिंदा रहते अपने घरों में होते। जो मजदूर सिर्फ सरकार के भरोसे रहती है पर इन्हे क्या पता था सरकार इन्हे ही मौत के मुंह में धकेल रही है। मेरा सिर्फ यही मानना है कि अगर आप लाखो करोड़ों के पैकेज में गरीब मजदूर के लिए कुछ अच्छा नहीं ला पा रहे तो इससे बड़ी विफलता नहीं हो सकती है। अगर सरकार कुछ नियम योजना ला रही है तो पूरी सोच विचार करके बनाए और उन लोगो के बारे सोचे जो एक वक़्त के लिए खाने के लिए तरसते है, उनके बारे में सोचे जो कम आमदनी में अपना परिवार चलाते है। क्यों की अगर वो मजदूर ही नहीं रहेंगे तो आप आराम से ज़िन्दगी कैसे जिएंगे।

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