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एकध्रुवीयता एक सतही अवधारणा

Dr. vikash shukla

Assistant professor at

Amity university, Lucknow

 

दुनिया को एकध्रुवीय कहने का कोई मतलब नहीं है| इतिहास में ऐसा एक भी दौर नही रहा जब दुनिया में बहुध्रुवीय व्यवस्था न रही हो| इतिहास के प्रत्येक युग में विश्व में बहुध्रुवीय व्यवस्था रही है| वर्तमान में हम जिस संदर्भ में दुनिया को एकध्रुवीय कह रहे है वह संदर्भ बहुत ही नया है और एक प्रकार से यह एक गढी हुई सतही अवधारणा है जिसका निर्धारक अमेरिका है| इस अवधारणा का सम्बन्ध सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवादी देशों के, मुख्य रूप से अमेरिका के इस मिथ्या प्रचार से है जिसमें उसने कहा कि विश्व से अब समाजवाद समाप्त हो गया है और इस विश्व में केवल पूंजीवाद रह गया है| फुकुयामा भी इसी थीसिस को स्थापित करते हुए पूंजीवाद की विश्वव्यापी विजय की घोषणा करता है जो एक वैचारिक दिवालियेपन के विचार से अधिक कुछ नही था| इस विचार के केंद्र में जो वर्चश्व स्थापित करने की महत्वाकाँक्षा पनप रही थी, उसमे यह बात निहित थी कि सोवियत संघ के विघटन के पश्चात एक ही महाशक्ति बची है और वह है अमेरिका| अतः दुनिया एकध्रुवीय हो गई है| इस पूरी कवायद में एकध्रुवीयता के दो मौलिक अर्थ निकलते है पहला यह कि सम्पूर्ण विश्व में पूंजीवादी व्यवस्था और दूसरा सम्पूर्ण विश्व पर अमेरिकी वर्चश्व| लेकिन यह विचार ‘पश्चिम’ मुख्य रूप से अमेरिका का गढ़ा हुआ है जिसमें पूंजीवाद और अमेरिका की आकांक्षा तो हो सकती है परंतु यथार्थ के धरातल पर यह अवधारणा ध्वस्त होती हुई दिखाई देती है| क्योंकि समकालीन विश्व व्यवस्था में शक्ति के अनेक केंद्र उभरकर हमारे सामने आए है और खासकर कोविड -19 वैश्विक महामारी ने एकध्रुवीय विश्व और अमेरिकी वर्चश्व को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया दिया है| राज्यों के मध्य शक्ति के लिए संघर्ष अपने चरम पर है जिसे मैं  हमेशा मोर्गेन्थौ प्लान कहता हूँ एक बार पुनः चरितार्थ होता हुआ|

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