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कैसे मनाते हैं छत्तीसगढ़ के आदिवासी ठाकुर देवता की अघ्घन जात्रा

इस देश के हर राज्य के हर गाँव में किसी ना किसी देवता को माना जाता है, और उनकी पूजा करने के रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न होते है। छत्तीसगढ़ के अलग-अलग जिलों में कई प्रकार की जात्रायें देखने मिलती है, उनमें से एक है गरियाबंद के पीपरछेड़ी की अघ्घन जात्रा।

 ग्राम के ठाकुर देवता की पूजा पाठ या जात्रा दिसंबर माह में की जाती है, जिसे “अघ्घन जात्रा” कहते हैं क्योंकि यह अघ्घन महीने के दौरान होती है। ठाकुर देव को गांव से बाहर किसी एक पेड़ के नीचे विराजमान करते है। केरगांव ग्राम में साल के पेड़ के नीचे ठाकुर देवता विराजमान है। उस पेड़ को कोई नहीं काटता, बल्कि उसके आसपास और पौधे लगाए जाते हैं।

ठाकुर देवता की मान्यता

जिस तरह गांव चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी गाँव के बुजुर्गों पर रहती है, कुछ भी कार्यक्रम मुखिया को बिना पूछे नहीं करते हैं, अर्थात सार्वजनिक काम हो तो पूरी ज़िम्मेदारी एवं मार्गदर्शक के रुप में बड़ों की भूमिका रहती है, उसी तरह से गांव में ठाकुर देवता है। ठाकुर देवता ग्राम के सब देवता में से बड़े माने जाते हैं, इसलिए सबसे पहले पूजा ठाकुर देवता की होती है। पूजा के स्थान पर केवल पुरुष लोग ही जाते हैं; महिलाओं को जाने की अनुमति नहीं है। जिसके घर में औरत मानसिक धर्म/माहवारी में रहती है, तो उस घर से पुरुष भी ठाकुर देवता के स्थान में नहीं जाते और ना ही वहां का प्रसाद ग्रहण करते है।

पूजा के नियम

पूजा की आवश्यक सामग्री मे नारियल, धूपबत्ती, दिया, नींबू, चावल, तेल, धान, मुर्गी या मुर्गा, बकरा, दूध, महुआ दारू, आदि गिने जाते है। उपवास मे पाँच ,या सात या ग्यारह लोग ठाकुर देव के स्थान में रात को रुकते हैं। ठाकुर देवता की पूजा के लिए एक दिन पहले जाकर, ठाकुर देवता के स्थान में बैगा उपवास रखा जाता है। बैगा के साथ गांव वाले भी जाते हैं। देव स्थान को साफ सफाई कर, गोबर से लिपाई की जाती है, और सुबह ठाकुर देवता की पूजा-अर्चना करते है। चावल की पूंजी या कुड़ी बनाकर उसमें दीप को रखके जलाते हैं। दीप के पास फिर तीन कुड़ू या पूंजी बनाते हैं और उसके ऊपर निम्बू रखते हैं। जिस मुर्गी या बकरे को बलि देते है, उसे दाना चबाना पड़ता हैं। अगर कुछ कारण से मुर्गी या बकरी दाना नहीं उठाता, तो जब तक वहां के विधि का पता नहीं चल जाता, तब तक बैगा देवता से बात करता रहता है।तब तक बात करता है, जब तक बैगा को वहां की विधि पूरी तरह से समझ नही आ जाती।

इस तरह चावल की कुडी मे दिया रखते है और मुर्गी की बलि देते है

थोडे से धान को ठाकुर देव के स्थान के पास  कोठार बनाकर मिजाई की जाती है। ठाकुर देवता में गांव वाले लोग भी श्रद्धा और विश्वास के साथ नारियल और थोड़ा सा चावल चढ़ाते हैं। ठाकुर देवता के साथ में राव देवता भी रहता है, उसे  मुर्गी या बकरे की बलि दी जाती है।

ठाकुर देवता की पूजा-अर्चना के लिए ग्राम के नागरिकों द्वारा सब घर से चंदा लिया जाता है। उसी पैसों से ठाकुर देवता की  जात्रा की जाती है। जात्रा के दिन सब पुरूष लोग वही खाना पकाते हैं और वही खाना खाते हैं। ठाकुर देव के स्थान के पास ही खाना पकाते है। उसे “मुडी़ भात” कहते हैं और उसे  पाँच या सात लोग खाते हैं। वहां के खाने को घर नही लाया जा सकता। खाना बच जाने पर ठंडा कर देते हैं, अन्यथा कोठार/गोदम में ले जाते हैं और फिर बाद में खाते हैं।

यहाँ देव स्थान में चप्पल जूता नही पहनते। चप्पल जूता पहन कर जाओ तो दूर निकालना पड़ता है।

ठाकुर देवता का महत्व 

लोगों का मानना है कि जो भी बाहरी प्रकोप आता है, उसे ठाकुर देवता रोकते है और गांव में कोई भी बाधा आने वाली होती है, तो देवता बता देते है कि गांव मे बाधा आने वाली है। ये बता देते हैं कि इससे बचकर रहना, तो फिर हम उसके बताये नियम का पालन करते हैं।

ठाकुर देवता की जात्रा को गांव बनाना भी कहते हैं, क्योंकि इसके बाद गांव में घर- घर की देवी देवता की जात्रा या बोड़ मनाया जाता हैं। घर के मुखिया एवं बैगा अपने- अपने घर में अपने देवी-देवता की पूजा अर्चना करते हैं।

परत भांवर वाला धान खरही

ठाकुर देव के समक्ष धान की मिजाई करने के लिए देव स्थान के सामने कोठार बनाया जाता है। वहीं पास में मिजाई करके उसका चिंवरा कूटा जाता है और ठाकुर देव को चढ़ाया जाता है। धान भीड़ा को खोलकर खरही बनाते है या रचते हैं। उसे परत भांवर वाला धान खरही कहते हैं। इसे ठाकुर देवता की यात्रा किए बिना नहीं मिजते हैं। जात्रा से पहले मिंजाई करने पर ठाकुर देवता नाराज़ हो जाता हैं, जिसका परिणाम भारी पड़ता है। अर्थात यह नियम को आदिवासी समुदाय के लोग मानते है। यह नियम हमारे पूर्वजों के समय से चलते आ रहे है, लेकिन हम आज भी इनका कड़ाई से पालन करते है।

यह जानकारी छत्तीसगढ़ के निवासी बैगा गंदेश्वर नेताम, जाति गोंड़ द्वारा प्राप्त हुई है।

लेखक के बारे में- खगेश्वर मरकाम छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं। यह समाज सेवा के साथ खेती-किसानी भी करते हैं। खगेश का लक्ष्य है शासन-प्रशासन के लाभ आदिवासियों तक पहुंचाना। यह शिक्षा के क्षेत्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं।

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