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ऑनलाइन शिक्षा: वक्त की ज़रूरत या भेदभावपूर्ण व्यवस्था

कोरोनाकाल में आनलाइन शिक्षा व परीक्षाओं की तरफदारी डिजिटल डिवाइड ही नहीं, नैतिक व वैचारिक मूल्यों पर भी कुठाराघात है। कोरोनाकाल जैसी आपदा तो महज़ अवसर है आनन-फानन में आनलाइन पाठ्यक्रम पैटर्न ज़ोर-शोर से लागू करने का। देखा जाए तो यह बहस भी कोई नई नहीं है बल्कि पिछले दस सालों से चली आ रही है जब केन्द्र में मोदी की सरकार नहीं थी। तब असहमति और वैचारिक मतभेद रखनेवालों के बीच इतनी कट्टरता नहीं थी। 

हालिया सालों में विभिन्न माध्यमों से स्वतंत्र चर्चा-बहस का माहौल खत्म कर, आरोप-प्रत्यारोप और येन-केन-प्रकारेण अपनी बात मनवाने की संस्कृति अस्तित्व में आयी है। इससे एक बड़ी आबादी को तथ्यों व सूचनाओं से बाहर कर दिया है। ऐसे में सच अफवाहों की भेंट चढ़ता जा रहा है।

शिक्षण संस्थान केवल क्लास करने व परीक्षाओं में बैठकर पास हो जाने की जगह नहीं हैं

विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थान केवल क्लास करने व परीक्षाओं में बैठकर पास हो जाने की जगह नहीं हैं। कैंपस की परिकल्पना और उसके पूरे स्ट्रक्चर को देखें तो आप अंदाज़ा लगा पाएंगे कि अधिकांश छात्र विश्वविद्यालयों में डिग्री लेने के उद्देश्य से आते तो हैं, किंतु पाठ्यक्रम के अलावा जो व्यक्तित्व वे अर्जित करते हैं वह उनकी असल अकादमिक जमा-पूंजी होती है। 

दोस्त-यार, सर्कल, लाइब्रेरी, चर्चा-बहस, सामाज, संस्कृति, राजनीति आदि के व्यवहारिक ज्ञान व तकनीकी पहलूओं की समझ हासिल करने की असल जगह है कैंपस। घंटों-घंटों की बहसें, हास्टलों की रात-रात भर की जीवंत बहस और चर्चाएं व्यक्तित्व को निखारता है। आप देखें तो आज़ादी आंदोलन से लेकर अबतक के तमाम आंदोलनों में विश्वविद्यालयों का बड़ा रोल रहा है। बड़ा क्या लीड रोल रहा है। जो ऐतिहासिक दस्तावेज़ो से बखूबी समझा जा सकता है। 

विश्वविद्यालय आधिकारों की लड़ाई में अग्रणी भूमिका अदा करते आए हैं

पूरे विश्व में विश्वविद्यालयों द्वारा अपने आधिकारों की लड़ाई में अग्रणी भूमिका रहती आयी है। आज भी कोई आंदोलन एक यूनिवर्सिटी से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी यूनिवर्सिटी होते कैसे व्यापक हो जाता हैं कि सरकारों की हालत खराब हो जाती है। अब जबकि आनलाइन क्लास और परीक्षाओं को यूनिवर्सिटी व विद्यालयों के लिए स्थाई रूप में लागू कर देने की वकालत की जा रही है। तो सवाल उठना लाज़िमी है कि यह सारी लड़ाईयां अब क्या ऑनलाइन लड़ी जाएंगी?  

सामूहिकता सरकारों के लिए हमेशा से खतरा साबित होती आई है

जो काम छात्र परिसर में रहकर देश-समाज के लिए कर सकते हैं वह भला ऑनलाइन कैसे संभव है? सामूहिकता सरकारों के लिए हमेशा से खतरा साबित होती आई है। सरकार इस बात को भली-भांति जानती है, इसलिए वह इस फैसले पर गंभीर होने के साथ जल्दी में है। चूंकि अवसर भी है और बहुत किसी को फर्क भी नहीं पड़ रहा इसलिए एक के बाद एक अलोकतांत्रिक व जनविरोधी कानून लाए जा रहे हैं। 

लगातार एक के बाद एक सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों की गिरफ्तारियां हो रही हैं। जबकि सांप्रदायिकता को हवा देकर हिंसा को भड़काने और शांतिपूर्ण तरीके से प्रर्दशन कर रहे नागरिकों पर गोली चलानेवाले लोग खुलेआम घूम रहे हैं। सरकार अपने चाल-चरित्र में स्त्री-विरोधी होने के कारण महिलाओं से ज़्यादा खुन्नस खाई हूई है। उन्हे यह बात नागवार है कि महिलाएं कैसे इतना बड़ा आंदोलन लीड कर सकतीं हैं, वह भी मुस्लिम कम्युनिटी की। 

क्या भविष्य में छात्र व सरकार के बीच संवाद की सभी गुंजाइशें खत्म कर दी जाएंगी?

इसमें कोई संदेह नहीं कि आनेवाले समय में छात्र व सरकार के बीच संवाद की सभी गुंजाइशों को खत्म कर दिया जाएगा। केवल फैसले लिए जाएंगे और थोपे जाएंगे, क्या दिल्ली विश्वविद्यालय क्या अलीगढ़ और क्या इलाहाबाद। सरकारी दखल-अंदाज़ी से विश्वविद्यालयों की स्वयत्ता इसकदर ध्वस्त हुई है कि सामाजिक, सांस्कृतिक व परंपरागत रुढ़ियों को तोड़कर सार्वजनिक दायरों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले फिर से किन्हीं ग़ुलामी की चहारदीवारी में कैद हो जाएंगे। 

देश कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है। आलम यह है कि रोज़ गुणात्मक रूप से बढ़ते संक्रमण के मद्देनज़र लाकडाउन खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है तो ऐसे में सरकार के लिए शैक्षणिक संस्थानों को नियमित रूप से शुरू कराने की चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। अब बात ऑनलाइन क्लास और परीक्षाओं की चल पड़ी है। सरकार इसके लिए तत्पर भी दिख रही है। 

ऑनलाइन शिक्षा हेतु DU के 85% विद्यार्थी एवं अध्यापक पक्ष में नहीं

दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए निर्देश भी जारी कर दिए गए। दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापकों के एक समूह द्वारा,ल ऑनलाइन परीक्षाओं के लिए किए गए एक सर्वे में यह बात सामने आयी कि ज़्यादातर लोग इसके फेवर में नहीं हैं। 85 फ़ीसदी छात्रों व अध्यापकों के विरोध के बावजूद प्रशासन ने इम्तेहान की तारीख की घोषणा कर दी। महाराष्ट्र में भी यह बहस चल रही है। 

जब शहरों के  23.8% घरों‌ में इंटरनेट की सुविधा है तो कैसे कारगार साबित होगी ऑनलाइन शिक्षा

ऑनलाइन शिक्षण प्रणाली तमाम विद्यालयों में भी लागू करने की बात कही जा रही है। “द एनुअल स्टेट आफ एजुकेशन” 2018 की रिपोर्ट है कि देश के ग्रामीण इलाकों में कक्षा 5वीं के आधे बच्चे ही दूसरी कक्षाओं की किताबें पढ़ पाते हैं। 

28 फीसदी बच्चे ही सरल गुणा-भाग के हल निकाल पाए। 2017-18 “एनएसएसओ” की रिपोर्ट है कि शहरों में 23.8 फ़ीसदी घरों में इंटरनेट वाईफाई है। गांवों में यह 14.9 फ़ीसदी, हालांकि ट्राई के इस आंकड़े पर खूब सवाल भी उठे है। केरल और हिमांचल में यह आंकड़ा 40 फीसदी हो जाता है। 

सबसे मज़ेदार बात यह है कि ऑनलाइन एजुकेशन के लिए कोई तैयार नहीं है। डीयू का सर्वे भी हम देख ही चुके हैं जहां पहली बार इंप्लीमेंट की बात हो रही है। तो सवाल उठता है कि सरकार इस मुद्दे पर बिना चर्चा-बहस किए इतनी जल्दी में क्यूं है। यह कितना हित में है कितना नहीं हमें समझना होगा। यदि यह स्थाई नीति बन गई तो हमारी बची-खुची शिक्षा व्यवस्था का कितना बड़ा नुकसान होने जा रहा है इसका अंदाजा नहीं है? इससे पहले सीबीसीएस और रोस्टर भी हम देख ही चुके हैं, मंशा साफ है।

ऑनलाइन एजुकेशन से समाज का एक बड़ा तबका शिक्षा हासिल करने से महरूम रह जाएगा

तत्कालिक रुप से सबसे पहले कौन लोग इससे बाहर होंगे वह भी छुपा नहीं है। ऐसे में आर्थिक और तकनीकी रूप से पिछड़े छात्रों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। यूनिवर्सिटी जैसी बड़ी संस्था का दायरा संकुचित हो जाएगा। एजुकेशन पैकेजिंग के नाम पर शिक्षा की खरीद-फरोख्त की जाएगी। यह समझना बेमानी है कि तब भी हमारे लिए थोड़ा स्पेस बचा रह जाएगा। 

अतः शिक्षण संस्थानों को बचाने के लिए सरकार के मंसूबे को समझना ज़रूरी है। नीतिगत और नैतिक दोनों स्तर पर सरकार द्वारा शिक्षा पर यह हमला विश्वविद्यालय व छात्रों के ऊपर तो है ही, साथ ही उस विरासत के ऊपर भी है जो अपनी तमाम चर्चा-बहसों व क्रिएटिव प्रोटेस्टों के माध्यम से देश की दिशा तय करती हैं।

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