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वर्ग-संवेदना की ओर महिला आन्दोलन

न्यूयार्क सेंट्रल पार्क में अफ्रीकनअमेरिकन पुरुष द्वारा एक श्वेत महिला को अपना कुत्ता बांध कर रखने की ताकीद देने पर, महिला ने तुरंत ही पुलिस को यह कह कर फोन किया कि एक अफ्रीकन अमेरिकन पुरुष से उसे आक्रामकता की आशंका हैं।

घटना के विडियो में इस आशंका का कोई कारण नज़र नहीं आता है। घटना में जहां अफ्रीकीअमेरिकी पुरुष, अपनी ‘रेस’ की वजह से, गंभीर शारीरिक क्षति होने के खतरे में हैं। वही शिकायतकर्ता महिला किसी किस्म की आसन्न संकट स्थिति में नहीं प्रतीत होती।

 नस्लीय भेदभाव समकालीन अमेरिकी समाज की सच्चाई है

उक्त घटना एक नैतिक रूप से प्रतिशोधी स्थिति की ओर इंगित करती हैं, जिसमें की एक प्रभुत्वशाली समूह के द्वारा अपनी प्रभुसत्ता कायम रखने के लिए सामान्य तौर पर पुलिस का इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल नस्लीय भेदभाव के तहत अफ्रीकन अमेरिकन कौम आक्रामक छवि प्रस्तुत करती यह घटना, समकालीन अमेरिकी समाज की सच्चाई हैं।

 यह घटना अमेरिका के अलगाववादी छवि को प्रदर्शित करती है

यूं तो, यह घटना अमेरिका के गुलामी और अलगाववाद वाली सामाजिक पृष्ठभूमि का चित्र प्रस्तुत करती हैं। परन्तु इसका एक समान्तर रूप भारत में भी दिखलाई पड़ता हैं, जहां विशेषाधिकार प्राप्त अभिजात्य वर्ग कई दफ़ा निम्न वर्ग पर अपनी धौंस कायम रखने के लिए पुलिस की सहायता लेता हैं।

अपने इस वर्गभेद आधारित कृत्य को छिपाने के लिए वे एक पेचीदा उदारवादी सफाई पेश करते हैं, जिसमें वे ऐसा चित्र प्रस्तुत करते हैं जहां यह निम्न वर्ग का हमलावर व्यक्ति आक्रामक हो गया, जिसके बचाव में पुलिस को सहारा लेना पड़ा।

इस प्रकार से पुलिस के हस्तक्षेप से मामला और भी संगीन हो जाता है, खासतौर से इसलिए क्योंकि पुलिस स्वयं ही वर्ग-भेद और अमानवीय व्यवहार के लिए जाना जाता हैं।

पितृ सत्तात्मक समाज में महिलाओं को बेहद कमजोर समझा जाता है

निम्न वर्ग को सबक सिखाने के ऐसे घटनाक्रमों में, प्राय: स्त्री और पुरुष दोनों ही बराबरी से अपनी वर्ग -प्रभुता का इस्तेमाल करते नज़र आते हैं। परन्तु जब एक अभिजात्य वर्ग की महिला एक निम्न वर्ग के पुरुष के साथ निपटने के लिए तैयार होती हैं तब यह आक्रामकता की शिकायत और भी पैनापन से सामने आता हैं।

पितृ सत्ता आधारित समाज में उच्च वर्ग की महिला को पुरुष के अपेक्षा कमज़ोर और निसहाय मान लिया जाता। फलस्वरुप, उच्च वर्ग की महिला के पक्ष के प्रति एक पीड़ित व्यक्ति की तरह संवेदना होती है।

इस मुद्दे पर बात करने से पहले यह स्पष्टीकरण जरूरी हैं कि

  1.  ऐसा नहीं हैं कि निम्न वर्ग के पुरुषों का व्यवहार, जेंडर-विभेद और जेंडर-प्रभुता से मुक्त हैं।
  2. जेंडर आधारित उत्पीड़न के सभी मामलों में चाहे उत्पीड़न निम्न वर्ग के पुरुष द्वारा ही क्यों ना हों, महिला द्वारा पुलिस संरक्षण लेने का अधिकार निर्विवाद हैं।
  3. इस पित्रसत्तात्मक समाज में हर उत्पीड़न के मामले में महिलाओं के वृतांत को विश्वासपूर्वक देखा जाना चाहिए। यह प्रचलित मान्यताएं की महिलाएं झूठ बोलती हैं और छोटी मोटे झगड़ों को बिना वजह उत्पीड़न के मामले बना देती हैं, गलत और प्रतिगामी हैं।

इस लेख का मूल उद्देश्य इस बात पर ध्यानाकर्षित करना है कि वर्ग विशेष के निहित स्वार्थ हेतु, किस प्रकार से सुरक्षा के संवाद को एक विकृत स्वरुप दिया जा रहा हैं।

मीडिया ने रेपिस्ट को भी एक विशेष वर्ग तक सीमित कर दिया है

पिछले दशकों में मीडिया के मार्फत, रेपिस्ट की एक ऐसी छवि उभरकर आई हैं जो इसे वर्ग विशेष के दायरे में सीमित करती हैं। चुनिंदा कवरेज और बहसों के एक खास झुकाव होने से , इस रेपिस्ट की छवि एक मलिन और फटेहाल श्रमिक की बन गयी, जोकि अपने परम्परागत ग्रामीण पिछड़ापन के चलते, शहर की  मॉडर्न महिलाओं के रहन-सहन से सहमत नहीं है।

इस पर यह मान लिया गया हैं कि ‘ये कैरियर वूमेन’ शहर के अंधियारी गलियों में रैप का शिकार होती हैं। इन अनुमानों पर खुल कर बातचीत तो होती नहीं हैं, बल्कि समाज में इस पर सामान्य रूप से सहमति है।

निम्न वर्ग की महिलाओं पर होने वाले हमले चर्चा के दायरे से बाहर ही रहते हैं

बहरहाल, उच्च वर्ग के मर्दों द्वारा किये गए यौन उत्पीड़न के मामले एवं निम्न तबके (दलितों) की महिलाओं पर होने वाले यौनिक-हमला, चर्चा के दायरे से बाहर ही रहते हैं।

इन मामलों में सार्वजनिक रूप से कोई हलचल नहीं होती क्योंकि इन घटनाओं में परिवेश और संस्कृति आधारित- संघर्ष का मसालेदार वर्णन ही नदारद हैं।

रेपिस्ट की छवि की ऐसी स्टीरियोटाइपिंग के चलते, अनगिनत महिलाओं की उत्पीड़न की कहानियां दब जाती हैं और यौन उत्पीड़न की समस्या को एक वर्ग विशेष से जोड़कर, सर्वदा वंचित और उत्पीड़ित  निम्न वर्ग पर सांस्कृतिक-दोष ही मान लिया जाता हैं।

निम्न वर्ग की पुरुष भी अपनी बात उतनी मजबूती से नहीं कह पाते

निम्न वर्ग के पुरुषों को लेकर इस भय के परिणाम स्वरुप, सामान्य बातचीत में दृढ़तापूर्वक किये गए आग्रह भी ‘धमकी भरे और आक्रामक’ दिखाई पड़ते हैं।

इन पुरुषों को स्वभावतः आक्रामक व्यक्ति मान लिया जाता हैं और इनकी बातों को अविश्वास और संवेदनहीनता की दृष्टि से देखा जाता हैं। निर्धनता और सामाजिक प्रतिष्ठा के आभाव में निम्न वर्ग के यह पुरुष, अपने पक्ष को दुर्दांत पूर्वक रखने में सर्वदा अक्षम होते हैं।

उदाहरण स्वरूप रिक्शा चालक की समस्या को समझते हैं

मसलन की किसी रिक्शा चालक द्वारा भाड़ा कम ना करने के लिए अड़ना पर उसके व्यवहार को मर्दाना-अक्रमकता करार दिया जाना पर या फिर किसी सुरक्षा गार्ड की युवती से हुई झड़प पर इसे तुरंत ही आक्रामकता मान कर महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा बना लिया जाता हैं।

पुलिस का रवैया भी निम्न वर्ग के प्रति अत्यंत भयावह होता है

यही मामले पुलिस के हस्तक्षेप से गंभीर मोड़ ले लेते हैं क्योंकि आमतौर पर पुलिस महकमे में निम्न वर्ग के पुरुषों को आदतन रूप से झूठा या मुर्ख ही समझा जाता हैं।

एक बार पुलिस के चंगुल में आते ही, वर्दीधारी का स्वरूप जेल में, न्याय का बंदोबस्त मनमाना रूप ले लेता हैं, जिसके परिणाम गंभीर शारीरिक क्षति से लेकर बेहिसाब वसूली तक कुछ भी हो सकते हैं।

इस निम्न वर्ग के पुरुष पर लगे आरोप और उसके खिलाफ दी गयी गवाही के प्रभाव से उसका सामाजिक व्यक्तित्व गौड़ हो जाता है।

ऐसे सामाजिक बहिष्कार का सामना करते हुए वह अपनी वर्ग आधारित वंचना को देख ही नहीं पता। नारीवादी विचारधारा का इतिहास इस बात का गवाह है कि यौन शोषण की विवेचना अपने आप में एक निर्णायक और कालजाई औजार हैं।

शोषण की विवेचना किया जाना बेहद जरूरी है

रोज़मर्रा होने वाले शोषण की विवेचना, जब यौन-उत्पीड़न के रूप में की जाने लगी तो कार्यस्थल-समानता के आन्दोलन में एक तेज़ी सी आई थी।

परन्तु इस बात को नाकारा नहीं जा सकता कि इसी विवेचना की ताकत का इस्तेमाल वर्ग- आधारित हितों की साधन पूर्ति के लिए भी किया जा सकता है, जिसके प्रति सचेत रहने की ज़रूरत है।

पितृ सत्ता को गरीबी से जोड़ना भी सही नहीं

दरअसल, पितृसत्ता को गरीबी से जोड़ कर देखने का अर्थ है, वर्ग-विभेद को और गहरा करना। ऐसा करने के परिणाम स्वरुप, उच्च वर्ग के पुरुषों को तो महिला उत्पीड़न के आरोप से सीधे अपराध मुक्ति का लाइसेंस मिल जाता है।

नारीवाद की भाषा में सेंध मारने वाली ऐसी सम्भावनायें औरतों को उनकी उस बेशकीमती आजादी से वंचित करती हैं जिससे वे वर्ग के परे जाकर, अपने नए रिश्ते और प्रभाव कायम कर सकती हैं।

संदेह और अविश्वास की लम्बी परिपाटी से गुज़रा हुआ नारीवादी-आन्दोलन

संदेह और अविश्वास की लम्बी परिपाटी से गुज़रा हुआ नारीवादी-आन्दोलन, आज स्वयं उस स्थिति में है जहां से वह वंचित समूह से साथ खड़ा हो उन्हें संबल दे सकता है। हर प्रकार के शोषण के विरुद्ध खड़े होने के लिए प्रतिबद्ध नारवादी आन्दोलन के लिए, निम्न वर्ग की गौड़ सामाजिक स्थिति, बड़े महत्व का विषय होना चाहिए।

दमनकारी व्यवस्थाएं के तख्तापलट करने वाली ऐसी ताकतों के लिए यह ज़रुरी है कि वे लिंग जाति और वर्ग के परस्पर समीकरण की जटिलता को समझे और वर्ग आधारित मान्यताओं को चुनौती दे।

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