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कविता: “इस रंग से मिलकर अच्छा लगा”

में चल पड़ा था तेरे संग पर वो मैं नहीं था
तू चल पड़ा था मेरे संग पर वो तू नहीं था
पर दोनों साथ चले वो अच्छा लगा।

थोड़ा गहरा जचा में तुझ पर
पर तूने मुझे खूब सराहा
वो अच्छा लगा।

थोड़ा फीका लगा मेरी वजह से तू
पर तू फिर भी मुस्कुराया
ये देख अच्छा लगा।

मुझे तेरी ये मासूमियत वाला रंग
बड़ा अच्छा लगा।

फिर एक दिन तुझे
मेरी वजह से धिक्कारा गया
काले से तेरे इस रंग को नाकारा गया।

दूसरों की बातो में आकर
तूने मुझ पर कुछ तेजाब सा मला,
जो मिला बस उसे लगाके अपने इस चेहरे
को तू सुन्दर बनाने चला।

मैं कहता रहा जैसा हु सराह ले मुझे
तेरा ही हु गले लगा ले मुझे
तू फिर भी रोता रहा।

अपना ऐसा होना सोच कर दुखी होता रहा
मैं कर न सका कुछ
मेरा दोष भी क्या था जान न सका कुछ।

पर तू मुझसे बस दूर होता चला
खुद को सजीला दिखाने को,
खुद के ही रंग से बैर कर बैठा
तू फिर एक बार मुझे गैर कर बैठा।

पर मैं बिछड़ ना सका तुझसे
तो फिर एक दिन खुद को आईने में देख
जब तू बोला कि क्यों हु मैं ऐसा।

मैं कह ना पाया
पर तुझे एक मर्म सा एहसास दिलाया
जो तुझे अच्छा लगा।

कि जिसे तू तेरी कमी समझता है
वो बस दूसरों का एक नज़रिया है।

तेरे पहचान तेरा रंग नहीं
तेरे जीने के ढंग से है।

जो करते हैं बैर रंगों से
उन्हें क्या पता अंधेरे से ही उजाला निकलता है,
वो तेज़ चमकदार सूरज भी
शाम की आबरू में हर रोज़ पिघलता है।

ये सुनकर उसे अच्छा लगा
अब दोनों साथ रहते हैं
फर्क नहीं पड़ता कि लोग क्या कहते हैं।

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