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सरकारी योजनाओं के बावजूद ग्रामीण महिलाओं तक क्यों नहीं पहुंचते हैं सैनिटरी पैड्स?

भारत एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था की प्रधानता वाला देश है। आज भी भारत की अधिकांश आबादी गाँवों में बसती है। इन ग्रामीण भारतीय क्षेत्रों में विभिन्न समस्याओं से सम्बंधित विभिन्न प्रकार की मान्यताएं होती हैं। उनमें से कुछ मान्यताएं  स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी दुष्प्रभावी होती हैं।

मान्यताओं पर चलने वाली महिलाएं पीरियडस के दौरान क्या बेहतर है, यह नहीं समझ पाती हैं। कुछ मान्यताएं तो इतने मज़बूत तरीके से स्थापित होती हैं कि उनका विरोध करना टेढ़ी खीर की तरह होता है।

इनमें पीरियड्स से सम्बंधित मान्यताएं भी इसी प्रकार की हैं। पीरियड्स के कारण उपले तोड़ना, आचार के डब्बे ना छूना, पूजा ना करना आदि ऐसे ही कुछ मिथक हैं।

संक्रमण कैसे फैलता है?

इन सभी मान्यताओं के कारण अधिकांश महिलाएं पीरियड्स के दौरान साफ-सफाई कैसे करना है, इससे सम्बंधित कौन से उत्पादों का प्रयोग करना है आदि के विषय में बहुत कम जानती हैं। इस वजह से वे पीरियड्स के समय खून को सुखाने के लिए पत्तियों, अखबार और सूखा बालू जैसी चीज़ों का प्रयोग करती हैं, जो संक्रमण की परिस्थितियां पैदा करके विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं को दावत देता है।

एक अध्ययन में यह तथ्य निकलकर सामने आया है कि भारत में 77 प्रतिशत महिलाएं पीरियड्स के दौरान अक्सर पुराने कपड़े का प्रयोग करती हैं। कपड़ों का सफाई से उपयोग तो किया जा सकता है लेकिन अक्सर ऐसा भी होता है कि ये महिलाएं एक ही कपड़े को बार-बार सुखाकर प्रयोग करती हैं।

चूंकि पीरियड्स को शर्मिंदगी की दृष्टि से देखा जाता है। इसलिए अक्सर ऐसे कपड़े को सबकी निगाहों से बचाने के लिए छाओं में सुखाया जाता है जो बाद में संक्रमण फैलाने में सहायक होता है।

अरबों डॉलर का है MHM प्रोडक्ट्स का उद्योग

ऐसा नहीं है कि पीरियड्स से निपटने के लिए स्वच्छ संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। पीरियड्स से सम्बंधित उद्योग आज सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा के दौर से गुज़र रहे हैं। सन् 1888 में पहले व्यावसायिक पैड के निर्माण से लेकर आज तक हम पीरियड्स के निपटान से सम्बंधित उत्पादों के निर्माण की दिशा में लंबी दूरी तय कर चुके हैं।

पीरियड्स के दौरान रक्त को अवशोषित करने के उपयुक्त तरीकों को लेकर विभिन्न स्तर पर शोध का दौर जारी है। आज पीरियड्स उद्योग लगभग अरबों डॉलर का उद्योग बन चुका है।

इतने बड़े उद्योग के बावजूद एनएफएचएस के 2015-16 के आंकड़ों के अनुसार, सिर्फ 58 प्रतिशत महिलाएं ही स्वच्छता के सुरक्षात्मक तरीके का उपयोग करती हैं। इनमें से 75 प्रतिशत तो शहरी क्षेत्रों की हैं। इस आंकड़े से ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है।

इसकी वजह क्या है?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

इस स्थिति का एक बड़ा कारण वाणिज्यिक उत्पादों के बारे में जानकारी की कमी है। ‘Youth Ki Awaaz’ और ‘WSSCC’ द्वारा उत्तर प्रदेश के तीन ज़िलों में किए गए रैंडम सर्वेक्षण के आंकड़ों से यह पता चला कि 69 प्रतिशत महिलाओं ने सैनिटरी पैड्स के बारे में सुना था लेकिन कभी भी इसका प्रयोग नहीं किया। इसका सीधा सा मतलब है 31 प्रतिशत लोगों ने सैनिटरी पैड नाम को सुना ही नहीं है।

इसके साथ ही इन व्यावसायिक उत्पादों की उच्च कीमतें भी इसका प्रयोग करने से रोकती हैं। अधिकांश गरीब परिवारों में लड़कियां अपनी मूलभूत ज़रूरतों के लिए संघर्ष करती रहती हैं। ऐसी स्थिति में पैड्स के विषय में सोचना भी एक बड़ी चुनौती होती होगी।

यद्यपि भारत में प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्रों पर सैनिटरी पैड्स सस्ते दामों पर उप्लब्ध हैं लेकिन वहां तक लोगों की बहुत ही कम पहुंच है।

इसके साथ ही भारत मे अंतिम व्यक्ति तक पीरियड्स से सम्बंधित उत्पादों को पहुंचाना एक बड़ी चुनौती है।कई गैर- सरकारी संगठन और कम्पनियां उच्च परिवहन लागत और वितरण सुविधाओं के अभाव के कारण ज़मीनी स्तर पर नहीं पहुंच पाई हैं।

इन सब चीज़ों को देखते हुए मुझे लगता है कि सरकार को पीरियड्स से सम्बंधित उत्पादों की सब जगह पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए। इन सब बातों के लिए लोगों को जागरुक करने के साथ-साथ परिवहन और वितरण की ऐसी व्यस्था करनी होगी जिसमें कम-से-कम लागत आए।

लागत कम होने से लाभ की अधिक संभावनाओं को देखते हुए पीरियड्स के क्षेत्र में काम कर रही कंपनियों में प्रतिस्पर्द्धा अधिक होगी। ऐसे में ये कंपनियां MHM प्रोडक्ट्स से सम्बंधित बड़े बाज़ार पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से ज़मीनी स्तर पर पहुंच बनाने के साथ-साथ उत्पादों को किफायती कीमतों में उपलब्ध कराने का प्रयास करेंगी।

संदर्भ- Youth Ki Awaaz

नोट: विवेक YKA के तहत संचालिच इंटर्नशिप प्रोग्राम #PeriodParGyaan के मई-जुलाई सत्र के इंटर्न हैं।

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