कल एक दोस्त से बात हो रही थी जो कि राजस्थान पुलिस में है। मैं आर्टिकल 15 मूवी देखने गया फिर व्हाट्सएप पर स्टेट्स भी डाला। उसने स्टेट्स पर कमेंट किया, “क्या यार क्यों ये फालतू की जातिवाद फैलाने वाली मूवीज़ में अपना समय व्यस्त करते हो? इस टाइप की मूवीज़ की वजह से ही हमारा हिंदी समाज डिवाइडेड है, हम यूनाइट नहीं हो पाते है।”
मुद्दे की बात यह नहीं है कि उसने क्या बोला? जबकि यह है कि बोलने वाला दोस्त दलित समाज से होकर भी इस मूवी के अगेंस्ट है। मैंने उससे पूछा कि तुमने ये मूवी देखी है? तो उसने मना कर दिया फिर मैंने पूछा कि क्या तुम्हें पता है इस मूवी का नाम आर्टिकल 15 क्यों है?
उसने हां बोला फिर यह भी बताया कि आर्टिकल 15 में क्या लिखा हुआ है। उसने पूरी लाइन सही से बोली, “संविधान के आर्टिकल 15 में लिखा है कि सरकार किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी।”
मैंने बोला, “अरे वाह तुम्हें तो पता है।” तो उसका रिप्लाई था, “भाई यह सब पढ़ा तभी तो नौकरी मिली है।” मैंने बोला, “तो फिर गलत क्या है मूवी में?”
उसने कहा, “इन सब मुद्दों पर बात ही क्यों करना है? क्यों समाज को बांटना है? क्यों दूसरे धर्म को हिन्दू धर्म की गलत चीज़ों के बारे में बताना है? यह सब हम हिंदुओं को बांटने की साज़िश है और कुछ नहीं। तुम पढ़े-लिखे लोग ही यह नहीं समझोगे तो कैसे काम चलेगा?”
मैं बोला, “तुम एक बार यह मूवी देखो फिर बात करते हैं।” उसने कहा, “मुझे देखना ही नहीं है। अच्छा चलो तुम बताओ, मैं यह मूवी क्यों देखू?” मैंने बाद में बताता हूं कहकर फोन कट कर दिया।
आखिर संविधान का ‘आर्टिकल 15’ है क्या?
मुझे लगा कि इसको आर्टिकल 15 के बारे में बताना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि वह पूर्वाग्रह का शिकार है और देश में बहुत सारे ऐसे लोग हैं। मैं इस आर्टिकल के ज़रिये बताने का प्रयास करूंगा कि मूवी ‘आर्टिकल 15’ को देखना क्यों ज़रूरी है।
इससे मैं यह बताना चाहता हूं कि असल में संविधान का आर्टिकल 15 क्या है? आर्टिकल 15 संविधान में दिए गए नागरिकों को मूल अधिकारों में से एक अधिकार है। इसके मुख्य रूप से 2 भाग है।
- नियम 1 यह कहता है कि सरकार या राज्य; किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
- नियम 2 यह कहता है कि किसी व्यक्ति को; धर्म, जाति, मूलवंश, जन्म और लिंग के आधार पर दुकानों, सार्वजानिक भोजनालयों, होटलों, सार्वजानिक मनोरंजन स्थलों, कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों, में घुसने से नहीं रोका जा सकता है।
अर्थात, आर्टिकल 15 में ये दो नियम उल्लेखित हैं और इनके बारे में सबको जागरुक करना ज़रूरी है। यह नागरिक का मूल अधिकार है, इसके अगेंस्ट कोई भी नागरिक कोर्ट भी जा सकता है।
आर्टिकल 15 केवल परीक्षा में एक नंबर लाने के लिए ही नहीं, बल्कि इसको प्रैक्टिस में लाना बहुत ज़रूरी है। ताकि हर नागरिक सम्मानपूर्वक जीवन जी सके। अब मैं यहां बताना चाहूंगा कि यह मूवी देखना क्यों ज़रूरी है-
यह फिल्म किसी भी तरीके से हिन्दू धर्म को नीचा नहीं दिखाती है
सबसे ज़्यादा अचंभित मैं यह सोचकर होता हूं कि आर्टिकल 15 कैसे हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने वाली मूवी है? यह बात केवल मेरे दोस्त ने ही नहीं बताई, बल्कि मैंने भी फेसबुक पर हिन्दुओं को बांटने वाले पोस्ट को बेहद करीब से देखा है।
मैं अपील करता हूं सभी लोगों से कि प्लीज़ एक बार मूवी को देखिए, इसमें कोई भी ऐसा डायलॉग या घटना नहीं है, जहां पर हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने या बांटने की बात होती है।
मूवी सिर्फ यह दिखाती है कि हमारे सामाजिक व्यवस्था में एक ऐसा चलन है, जिसकी वजह से समाज का एक बड़ा तबका हर क्षेत्र में पिछड़ गया है। हमलोग कभी उनको समानता का दर्ज़ा दे ही नहीं पाए। यह मूवी हमारे समाज में जाति के नाम पर हो रही हिंसा को एक दर्पण दिखाती है।
इसमें धर्म को नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था को दोषी ठहराया गया है। पक्षपात जो हम सबके दिमाग में बचपन से ही भर दिया जाता है, उसके बारे में ये मूवी बताती है। अगर आप यह सोचकर मूवी देख रहे हो कि यह हिन्दू एकता को तोड़ती है तो आप गलत हो।
जातिवाद की सच्चाई बयां करती फिल्म
फिल्म की कहानी मैं यहां शेयर नहीं करूंगा, क्योंकि पूर्व से ही इसके बारे में सबको पता है। इस पर बहुत लोगों ने लिख भी दिया है, तो मैं कहानी बताकर आपका ज़्यादा समय नही लूंगा।
कुछ प्रचलित प्रोपेगेंडा है कि जातिवाद तो अब है ही नहीं! अब तो सब एक समान है। जातिवाद तो पहले होता था, अब सब खत्म हो रहा है। लोगो की मानसिकता बदल रही है।
क्या सच में हमारा समाज सबके साथ समान रूप से पेश आता है? अगर हां, फिर क्यों हमें रोज़ समाचार पत्र खोलते ही ऐसी हेडलाइंस मिलती हैं, “कुएं में पानी पीने पर की दलित की हत्या”, “दलित दुल्हे को घोड़ी पर चड़ने से रोका”, “जातिगत भेदभाव के कारण दलित छात्र ने की आत्महत्या”, “दलित महिला का किया बलात्कार”, “दलित महिला को डायन बताकर किया निर्वस्त्र” और “दलितों को मंदिर में प्रवेश पर रोक” आदि।
यह मूवी इसी सच्चाई को बताना चाह रही है जिसको हम नकार चुके हैं। रोज़ इस तरह की खबरें पढ़कर भी आसानी से हम इनको झूठा बता देते हैं। यह मूवी आपको बस यह बताने का प्रयास कर रही है कि समाज आंख और कान बंद करने से नहीं, बल्कि खुले रखने से बदलेगा।
हमको हमारी सोच को बदलना होगा। एक इन्सान को केवल इंसान की नज़र से देखना या ट्रीट करना होगा, तब जाकर कुछ बदलाव आएगा। अतः सच्चाई को नकारो मत और आर्टिकल 15 देखो।
फिल्म आपको अंदर से हिला देगी
फिल्म शुरू होते ही जो गाना आता है, वही हमको सोचने को मजबूर कर देता है। गाना है, “हमरे गरीबन के झोपड़ी जुल्म्बा, बर्सेला पानी तो गिरे टप्प से। कहब तो लग जाई धक्क से धक्क से …. ।”
फिल्म की कहानी ही नहीं, बल्कि एक-एक डायलॉग अपने आप में बहुत सार्थक है। फिल्म देखने के दौरान ही मैंने कुछ डायलॉग अपने फोन में लिख लिए हैं।
फिल्म का सबसे प्रभावशाली डायलॉग
“मैं और तुम इन्हें दिखाई ही नहीं देते, हम कभी हरिजन हो जाते तो कभी बहुजन हो जाते हैं। बस जन नहीं बन पा रहे हैं कि जन गण मन में हमारी गिनती भी हो जाए।”
यह डायलॉग एक दलित क्रांतिकारी लीडर तब बोलता है, जब वो पहली बार आयुष्मान खुराना (पुलिस ऑफिसर) से मिलता है। फिल्म में दिखाए गए सभी दृश्य आपको अंदर तक हिला देंगे।
जैसे- पेड़ पर लटक रही लडकियों की लांशे, फटे कपड़े पहने लोग, हर दलित के चेहरे पर डर, सबकी आंखों में निराशा, नाले से गंदा मैला निकालता युवक, सरे-आम लकड़ी से पिटते लोग, पुलिस की अभद्र भाषा और सबसे अंत में उस दलित लड़की की हालत जिसका गैंग रैप किया गया।
ये सब दृश्य आपका रोम-रोम खड़ा कर देगा। ये सब देखकर आपको लगेगा कि हम कितने पक्षपाती हो रखे हैं। हमारी आंखों के सामने यह सब हो रहा है और हम बेठे हैं।
मेरे विचार क्या कहते हैं?
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि व्हाट्सएप और फेसबुक के प्रोपेगेंडा का शिकार होने से बचिए। किसी भी समाज या सामाजिक ग्रुप के खिलाफ पूर्वाग्रह रखने से बचिए। हर फिल्म की तरह यह फिल्म भी समाज का एक दर्पण है, जिसको हम नकार नहीं सकते!
सबसे अच्छी बात यह है कि बॉलीवुड में अब इस तरह की फिल्में आने लगी हैं, जो सीधे तौर पर सामाजिक समस्याओं को हमारे समक्ष रख पा रही हैं।