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पूर्वोत्तर के जीवन संघर्ष को झांकती फिल्म ‘अखुनी’

भारतीय सांस्कृति जीवन में खान-पान से जुड़ी एक खास बात यह रही है कि उसकी पैदाइश भले कहीं की भी हो, स्वाद में विविधता के कारण थोड़ा-बहुत फेर-बदल करके उसको अपने ज़ायके में शामिल करने का काम यहां के आम लोगों ने किया है।

फिर चाहे वह राजसी खाना-पीने की अपनी विलासी संस्कृत्ति हो या सड़कों के किनारे मिलने वाले स्टीट्र फूड। कौन जानता था कि समोसा, लिट्टी, चाट और पकौड़े को अपना स्टीट्र फूड मानने वाला भारत का हर समुदाय इडली, डोसा ही नहीं, बल्कि मोमोज, बर्गर-पिज़्जा, पाश्ता और नूल्ड्स को इस तरह से स्वीकार कर लेगा।

आज यह कोई नहीं कहता ये दक्षिण भारतीय व्यंजन है या नॉर्थ इस्ट का फूड है। सभी इसे भारतीय व्यजंन के नाम से जानते हैं और बड़े चाव से खाते हैं।

एक-दूसरे की संस्कृत्ति के साथ घुलते-मिलते, उठते-बैठते भारत में ये जो संस्कृत्ति विकसित हुई है, उसे ही भारत के संविधान में सामासिक संस्कृति कहते हैं और आम बोलचाल की भाषा में गंगा-जमुनी तहज़ीब। संस्कृत्ति को जानने समझने की इस तहज़ीब में अगर किसी समुदाय को बहुत कम समझा-बूझा गया है, तो वह है आदिवासी समुदाय और नॉर्थ इस्ट का समुदाय।

हालांकि नॉर्थ इस्ट के समुदाय में भी बहुत सारी विविधताएं सुनने को मिलती हैं। इसलिए उनकी पूरी संस्कृति को दो शब्दों के पदबंधों में बांटना सही नहीं होगा।

प्रकृत्ति पर आधारित आदिवासी समुदाय के खान-पान को भारतीय समाज में ही नहीं, बल्कि विदेशी समाज में भी इको फ्रेंडली और नैचुरल बोलकर उसके प्रति जुनूनी फंतासी का विकास हाल के दशकों में हुआ है, जिसको बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था भी धीरे-धीरे बढ़ावा देना शुरू किया।

मगर नॉर्थ इस्ट का समुदाय और उसके खान-पान पर आज भी एक पूर्वाग्रही मानसिकता हावी है जो एक नहीं, बल्कि सैकड़ों बार नॉर्थ इस्ट के लोगों के साथ भेदभाव को बढ़ावा देता है।

स्वभाव से शांत, मृदुलऔर ज़रूरत पर भी आवश्यकता से अधिक नहीं घुलने-मिलने और स्वयं अपनी दुनिया में मस्त रहने वाला यह समुदाय अपने साथ हो रहे भेदभाव को चुपचाप खामोशी से सहने को मज़बूर है।

यह किसी एक राज्य में नहीं, बल्कि पूरे देश में एक ही जैसा है। कभी थापा कभी चीनी कभी चिंकी तो कभी नेपाली इस तरह के सम्बोधन से उनको पुकारा जाना तो आम है, जिस पर वे प्रतिक्रिया तक नहीं देते हैं।

यह कितनी अजीब है ना कि हमारे साथ रहते-रहते उनको हमारे खाने मसाले और छोटी-बड़ी चीज़ें पता हैं। इसकी वजह शायद यह होगी कि हमारे साथ रहते-रहते उन्होंने हमारे खाने-पीने को अपना लिया है मगर हमलोग उनके खाने पीने और विशेष आयोजनों पर बनने वाले डिशेज़ के बारे में ज़रा सा भी नहीं पहचानते हैं।

निकोलस खारकोंगर निर्देशित फिल्म ‘अखुनी’ नेेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई है। फिल्म ने महानगरों में रहने वाले पूर्वोत्तर के युवाओं के समूह की सांस्कृतिक चुनौतियों को पेश करने की कोशिश की है। फिल्म में असम, मिजोरम, अरुणाचल, सिक्किम और नागालैंड के समाज और संस्कृति के साथ खान-पान और पलायन कर चुके युवाओं के सामने किस तरह के बदलाव आते है, उसको पेश करती है।

यह फिल्म कहीं ना कहीं इस मांग की जगह भी बनाती है कि उनको ही नहीं, बल्कि किसी भी राज्य के नागरिक को राइट टू ईट और कुक का अधिकार मिले। अखुनी नाम का डिश बनाने का संघर्ष यह सवाल पूछती है कि क्या आज़ाद लोकतंत्र में अपने पसंद का खाना खाने या पकाने की आज़ादी क्यों नहीं है?

फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें पूर्वोत्तर के किसी स्टार को शामिल नहीं किया गया, सभी नए चेहरों के साथ फिल्म बनाई गई है। दूसरी, पूरी फिल्म में वुमेन डॉमिनेंस वैसा ही दिखता है जैसा कि वहां के समाज में मौजूद है। तीसरी खूबी है दिल्ली के वातावरण में बनाई गई यह फिल्म।

मेरा मानना है कि जिन लोगों को पूर्वोत्तर के समाज के लोगों का छोटा सा संघर्ष उनके अपने भारत में देखना है, तो वे अकुनी ज़रूर देखें। उनको समझ में आएगा कि भारत विविधताओं का देश है मगर इस पंचलाइन में कितनी विविधता पूर्वाग्रहों के आगे हर रोज़ दम तोड़ देती है।

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