पूरे विश्व में काले रंग को लेकर एक पूर्वाग्रह रहा है… हजारों सालों से यह चलता ही आ रहा है, बिना किसी बाधा के, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी। कहा जाता है, जब आर्यों ने भारत में प्रवेश किया, तो स्थानीय काले लोगों से दूरी बनाए रखने के लिए वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया। जब यूरोपीय लोगों ने अफ्रीका में प्रवेश किया , तो उन्होंने भी आर्यों की रणनीति अपनाई।मोहनदास गांधी को अफ्रीका में ट्रेन से इस रंग के प्रति पूर्वाग्रह के कारण ही बाहर फेंक दिया गया।
यही नीति आज भी जारी है…चाहे आधुनिकता का दंभ भरने वाला अमेरिका हो या संस्कारों की दुहाई देने वाला भारत हो। यह पक्षपात की नीति कहीं खुले में अपनाई जा रही है, कहीं घूंघट की ओट से। जब कोई शादी के लिए लड़की ढूंढ़ रहा होता है, तो सबकी एक ही ख्वाहिश होती है…लड़की गोरी हो और सुंदर हो। एक तस्वीर से उस लड़की का भविष्य निर्धारित होने वाला है.. समाज कुछ तो शर्म कर लो यार तुम। विद्यालय हो या कॉलेज यदि तुम्हारा रंग काला है, तो तुम्हे ना शिक्षक ध्यान देगा ना मित्र मंडली।कार्यस्थल पर तुम्हारी नियुक्ति या पदोन्नति में बहुत बड़ा योगदान तुम्हारी सुंदरता का होगा, आप बताइए आपने कितनी receptionist श्याम वर्ण की देखी है। बचपन से यही सिखाया जाता है कि गोरा होना आदर्श स्थिति है, हल्दी लगाओ या उस साबुन से नहाओ जिसके प्रचार में कुछ हफ्तों में ही गोरा करने का दावा किया जाता है। रंग पर परिवार के लोग ही चुटकुले बनाते है, उसके निकनेम निकले जाते है। ये घटनाएं व्यक्ति के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न उठाने लगती है, मतलब तुम गोरे नहीं हो, तो समाज या परिवार तुम्हे एक किनारे कर देगा।
भारत में इंसान के रंग को लेकर पूर्वाग्रह इस हद तक है कि हर काली वस्तु या व्यक्ति को नकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाता है। फिल्म में काला व्यक्ति है, तो अधिकतर संभावना है कि वह विलेन ही होगा या उसकी गैंग का सदस्य होगा। एक एड शायद आपने देखा हो कि एक लड़की को पहले जॉब नहीं मिलती है, परंतु जैसे ही वह गोरा करने वाली क्रीम का प्रयोग करती है, उसकी सुन्दरता के कारण उसे जॉब मिल जाती है। ऐसे एड इस भेदभाव को संस्थागत मजबूती देते है।
भारत में गोरा करने वाला उद्योग लगभग 500 मिलियन डॉलर है, जो यह चाहता है कि यह मानसिकता बनी रहे ताकि इससे पैसा भी बनाया जा सके। आवश्यकता है कि इस भेदभाव व मानसिकता दोनों को जड़ों से खोद के जला दिया जाए।
जॉर्ज फ्लोयड को रंग के कारण मार दिया गया तथा कहानी 7 मिनट में समाप्त हो गई, लेकिन यहां तो इंसान को पूरी ज़िंदगी मर मर कर गुजारनी पड़ती है।इंसान को अपनी व दूसरों की गलतियों से सीखना चाहिए, ताकि फिर से किसी मांगीबाई को रंग के कारण अपनी जान ना देनी पड़े।
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