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एक के हिस्से ‘बाल दिवस’ और दूसरे के हिस्से ‘बाल मज़दूरी’, ऐसा क्यों?

child labour in india

भारत में बाल मज़दूरी है बड़ी समस्या : प्रतीकात्मक तस्वीर

देश जब गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होकर एक आज़ाद मूल्क बना। तब देश के निर्माताओं ने देश के भविष्य माने जाने वाले बच्चों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने का सपना देखा लेकिन सच यही है कि देश के संपन्न घरों के बच्चों के हिस्से किताबों से भरे बस्ते और स्कूलों में मनाया जाने वाला बाल दिवस आया। वहीं, इस मूल्क के एक बड़े भविष्य के हिस्से में बाल मज़दूरी एक मज़बूरी बनकर सामने आई।

इन बाल मज़दूरों का पूरा भविष्य दो वक्त की रोटी के आगे दम तोड़ने को मज़बूर है। वे इससे आगे निकल सके, इसके लिए उनके हितों को ध्यान में रखते हुए संरक्षण के लिए बाल श्रम उन्मूलन कानून बना लेकिन क्या कानून बन जाने के बाद सब ठीक हुआ? नहीं, उनके हाथ में किताब और कलम तब भी नहीं आ सकी, जिसकी गवाही बाल मज़दूरों की संख्या देती है।

बाल मज़दूरी : प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो साभार- Flickr)

12 जून को मनाया जाता है अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम विरोध दिवस

बाल मज़दूरी की यह समस्या केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि पूरी में दुनिया है। इससे उन्मूलन के लिए आज के दिन यानी 12 जून को पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम विरोध दिवस मनाया जाता है।

नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी बताते हैं कि सन् 2000 के आस-पास दुनिया में बाल मज़दूरों की संख्या करीब 26 करोड़ थी, जो कई लोगों के साझा प्रयासों से घटकर 15 करोड़ रह गई है। 2025  तक यह आंकड़ा दस करोड़ तक पहुंच सकता है, अगर पूरी दुनिया इस दिशा में इच्छा शक्ति, नैतिक जवाबदेही और धन-राशि के साथ संगठित होकर काम करे।

कोरोना वायरस ने जिस तरह पूरी दुनिया के सामने नई चुनौतियां पैदा कर दी हैं। ठीक उसी तरह पूरे दुनिया में बच्चों के सामने भी एक बड़ी चुनौती है। मौजूदा हालात में बाल मज़दूरी, बाल विवाह, वैश्यावृत्ति और बच्चों का उत्पीड़न भी बढ़ने वाला है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

नोबल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी

स्कूल छूट जाने से मज़बूरन करनी पड़ती है बच्चों को मज़दूरी

सोशल मीडिया पर कई वीडियो देखने को मिलते हैं जिसमें मासूम बच्चे सामन बेचते दिखाई देते हैं। जिसमें वह यह भी बताते है कि स्कूल छूट जाने के कारण उनको समान बेचने के लिए मज़बूर होना पड़ा है। इन बच्चों की खुदमुख्तारी इतनी मज़बूत है कि वो बेचे जाने वाले समान का अधिक मूल्य लेने के लिए तैयार नहीं होते हैं। वह उतना ही पैसा चाहते हैं जितना उस वस्तु का दाम हो।

ज़ाहिर है स्कूल के सिखाए गए मूल्य पर दुनियावी सोच ने कब्जा नहीं जमाया है,  इसलिए उनकी मासूम ईमानदारी बरकरार है लेकिन यह मासूम ईमानदारी जल्द ही सामाजिक सच्चाई के आगे घुटने टेक देगी। इसलिए ज़रूरी है कि इन बच्चों को जल्द-से-जल्द इनके स्कूल वापस भेजने की व्यवस्था हो। यह एक साथ कई तरह से समाज के वंचित समुदाय तक मदद पहुचाने में मददगार हो सकता है।

एक अनुमान के अनुसार भारत की सरकारें देश के कुल तीस करोड़ बच्चों को सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन देने या उनको स्कूल भेजने के लिए माता-पिता को कुछ धनराशि देती हैं। लॉकडाउन के कारण इन बच्चों का फिर से स्कूलों में वापस लौटना एक बड़ी चुनौती है।

एक बार लंबी अवधि के लिए स्कूल छूटने के बाद वंचित समाज के बच्चों का स्कूल लौटना मुश्किल हो जाता है। आर्थिक अनिश्चता के कारण वंचित समाज अपने भूख की व्यवस्था पहले करता है। यही कारण है कि जीवन की अन्य आवश्यकताएं उनके लिए प्राथमिक आवश्यकताएं नहीं बन पाती हैं।

स्कूल छूटने से बाल मज़दूरी करन को मज़बूर बच्चे: प्रतीकात्मक तस्वीर

सरकारों को एक कदम आगे आकर करनी होगी मदद

महामारी के असामान्य हालत में बाल मज़दूरी बढ़ाने से रोकने के लिए सरकारों को ठोस उपाए करने होंगे। पहला, यह सुनिश्चित करना होगा कि स्कूल खुलने के बाद बच्चे वापस अपने स्कूलों में लौट सकें। जिसके लिए मिड-डे मील, प्रोत्साहन राशि और वज़िफे जैसी सुविधा को जारी रखना होगा।

शिक्षा के स्तर को बनाए रखने के साथ-साथ इन बच्चों का छोटा-मोटा सहयोग फिर चाहे वह गृहकार्यो में भी हो माता-पिता को राहत देना होगा। बच्चों के अंदर समायोजन के भावना का विकास करना होगा। मिड-डे मिल के अतिरिक्त अगर सरकार इन बच्चों के लिए कुछ समय तक एक वक्त के खाने का इतंज़ाम कर सके, तो यह महामारी के दौरान सबसे बड़ी राहत होगी।

सरकार इन बच्चों के माध्यम से ही अगर बच्चों के अभिभावकों तक पहुंच कर कुछ राहत दे सके तो, इन बच्चों को बाल मज़दूरी करने से राहत मिल सकती है। इससे बहुत संभव है कि बाल मजदूरी के कारण पर भी रोक लगेगी। सरकार हर कंपनियों के साथ यह सुनिश्चित करे कि उनके यहां उत्पादन और वितरण से जुड़ी किसी भी चेन में बच्चों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।

बाल मज़दूरी – प्रतीकात्मक तस्वीर

बाल मज़दूरी, गरीबी और शिक्षा इन तीनों के बीच है गहरा रिश्ता

इस बात को समझना होगा कि बाल मज़दूरी, शिक्षा और गरीबी इन तीनों के बीच एक रिश्ता है। यही एक-दूसरे को चलाते भी हैं। यही बच्चों के समावेशी विकास होने, उन्हें सामाजिक और आर्थिक न्याय मिलने ना मिलने में सबसे भूमिका निभाते हैं।

महामारी के दौर में बच्चों को लेकर हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारी और अधिक चुनौतिपूर्ण हो गई है। हम केवल संपन्न परिवारों के बच्चों के लिए कोरोना काल में चिंतित हो रहे हैं कि वे स्कूल बंद होने के इस दौर में कैसे अपना ख्याल रखें और कैसे आनलाइन पढ़ाई करें। इसने अपने-आप में समाज में एक अतंर पैदा किया है और अन्य वंचित तबके के बच्चों के साथ अन्याय हो रहा है।

समाज में हर बच्चे को सुरक्षित और खुशहाल बचपन मिले, इसके लिए सरकार के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना पड़ेगा।

यदि हमारा समाज, सरकारें, उद्योग, व्यापार जगत, धार्मिक संस्थाए और मीडिया इन बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए एकजुट होकर काम नहीं करेगा, तो हम सब मिलकर एक पूरी पीढ़ी का जीवन ही नहीं भविष्य भी बर्बाद करने के लिए दोषी होंगे।


नोट : यह लेख कैलाश सत्यार्थी से एक छोटी-सी बातचीत पर आधारित है।

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