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क्यों समाज का बड़ा हिस्सा अब भी डिप्रेशन को बीमारी नहीं मानता?

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नोट: इस आर्टिकल में आत्महत्या का ज़िक्र है।

रविवार को फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली इसके बाद से लगातार सोशल मीडिया पर ऐसा ही कुछ लिखा जा रहा है। आत्महत्या करने वाला आदमी हारा हुआ होता है। डरपोक होता है। कमज़ोर होता है। कितना आसान होता है ना लिख देना कि तुम्हें ऐसे नहीं जाना चाहिए था। लड़ना चाहिए था। तुम कायर हो।

नाउम्मीदी कर देती है इंसान को निराश

कोई भी जब आत्महत्या करता है तो ज़रूर वो इससे पहले बहुत कुछ सोचता होगा। वह अपनी ज़िंदगी को खुद खत्म कर रहा होता है। खुद को उस मौत की तरफ लेकर जा रहा होता है। अंतत: जिससे लोग डरते हैं।

उसे पता होता होगा कि उसके जाने के बाद लोग उसे कायर समझेंगे। कुछ लोग सहानूभूति देंगे। कुछ दु:खी होंगे। लेकिन वह वापस नहीं आ पाएगा। कुल मिलाकर वह इतना नाउम्मीद हो चुका होता है कि उसे उसका एक ही हल मिलता है। यहां से चले जाना यानी मौत की ओर बढ़ जाना।

प्रतीकात्मक तस्वीर

समाज खुद पर सवाल उठने से डरता क्यों है?

इन सबके बीच जो सबसे ज़रूरी चीज़ होती है नाउम्मीदी, उस पर बात ही नहीं होती। बात इसलिए नहीं होती, क्योंकि फिर सवाल समाज की ओर चला जाता है। वहां चल रहे हज़ारों ऐसे कारणों की ओर चला जाता है जिससे लोग नाउम्मीदियों से घिर जाते हैं। डिप्रेस हो जाते हैं। बात करना बंद कर देते हैं।

कोई उनको सुनना नहीं चाहता जब वो बोलना चाहते हैं। उन्हें वो स्पेस ही नहीं मिल पाता जहां वे अपनी बात उस उम्मीद के साथ रख पाए कि उन्हें कोई समझेगा। फिर हज़ारों ख्याल उनके दिमाग में चलने लगते हैं।

अपने से अपना आदमी भी उस वक्त उन्हें या तो इग्नोर कर देता है कि सब ठीक हो जाएगा, या फिर सुनता है तो इस उम्मीद के साथ कि जो हल बताएगा उसे माना लिया जाएगा।

क्यों समाज का बड़ा हिस्सा अब भी डिप्रेशन को बीमारी नहीं मानता

कई लोग इससे छटपटा जाते हैं। फ्रस्टेट हो जाते हैं। उसके बाद बहुत चाहकर भी किसी से बात नहीं कर पाते हैं। कुछ लोग इतना सब होने के बाद भी ये सब झेल जाते हैं और इस लड़ाई को जीत जाते हैं।

लेकिन हर कोई इस फ्रटेशन को झेल नहीं पाता है। कुछ लोग हार जाते हैं। उन्हें लोग कायर और डरपोक कहने लगते हैं। हम ऐसी उम्मीद क्यों रखते हैं कि हर कोई इस लड़ाई को जीत ही जाएगा या उसे जीतना ही पड़ेगा। नहीं जीतने वाला कायर और डरपोक हो जाता है। कायर और डरपोक होने में भी क्या बुराई है? डर सबको लगता है। स्वाभाविक है। लगना भी चाहिए।

कभी क्या इस पर बात हुई कि समाज में ऐसी कौन-सी चीज़ें हैं जो किसी को मज़बूर कर देती हैं ऐसा करने के लिए। क्यों वो धीरे-धीरे इस हद तक पहुंच जाता है कि उसे सिवाय मौत के और कुछ नज़र नहीं आता? क्यों समाज का बड़ा हिस्सा अब भी डिप्रेशन को बीमारी नहीं मानता है?

मानसिक तनाव :प्रतीकात्मक तस्वीर

देश में बुरा है मानसिक स्वास्थ्य का हाल

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, फिलहाल 18 प्रतिशत भारतीय डिप्रेशन का शिकार हैं। भारत में 3.1 करोड लोगों पर मात्र एक मानसिक स्वास्थ्य का अस्पताल है। देशभर में फिलहाल कुल 43 मेंटल हॉस्पिटल हैं। इनमें भी कई अभी पूरी तरह से कार्यरत नहीं हैं

वहीं साइंस मेडिकल जर्नल लैंसेट के 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मानसिक स्वास्थ्य की बीमारी से ग्रसित 10 लोगों में से मात्र एक को डॉक्टर की सलाह मिल पाती है।

इसके बावजूद, क्यों कभी समाज के प्रेशर पर बात नहीं होती जो चाहे-अनचाहे लोगों पर बनाया जाता है। सफल होने का दबाव और दायरा क्यों बनाया जाता है? क्यों लोगों पर जबरदस्ती चीज़ें थोपी जाती हैं?

समाज का प्रेशर कितना करता है काम

क्या ये सब उस आत्महत्या के पीछे के कारण नहीं हैं? यह सोचने लायक बात है। आत्महत्या बिल्कुल किसी चीज़ का हल नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश होनी चाहिए कि इससे बचा जाए।

लेकिन ज़्यादा से ज़्यादा इसलिए क्योंकि कई बार डिप्रेशन, नाउम्मीदी, समाज का प्रेशर और भी तमाम चीज़ें जिन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। वो लोगों को अंदर तक तोड़ देती हैं।

उन्हें बिना जज किए सुनने वाला कोई नहीं मिलता है। समस्या सुनने से पहले सब हल बताने वाले मिलते हैं। कोई भीच के गले लगाने वाला नहीं मिलता जो लाख बात बोलने से ज़्यादा सूकून दे देती है। कोई डिप्रेशन को डिप्रेशन समझने वाला ही नहीं मिलता।

प्रतीकात्मक तस्वीर

समाज को एक बार खुद की ओर मुड़कर देखना होगा

किसी से ऐसे चले जाने के बाद भी उससे ये उम्मीद लगाए रखना कि उसे नहीं जाना चाहिए था। उससे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है कि एक बार समाज की तरफ, अपनी तरफ हम सब को मुड़कर देखना चाहिए।

हम कितने लोगों को सुनते हैं। कितने लोगों के लिए जनरल कमेंट पास कर देते हैं कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्या मिल गया ऐसा करके? फलां फलां। अपनी तरफ आने वाले सवालों से बचने के लिए जाने वाले को ही दोषी बता देने से बचना होगा और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूक और गंभीर होना होगा।

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