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‘गुलाबो सिताबो’ इन वजहों के लिए देखी जानी चाहिए

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आप मानो या ना मानो पर लालच एक ऐसी बुरी बला है जो हर इंसान को हर उम्र में थोड़ा बहुत तो होती ही है। यह जानते हुए भी की लालच का अंत एक-न-एक दिन बुरा ही होता है फिर भी लोग लालच करने से बाज नहीं आते हैं।

12 जून को अमेजॉन प्राइम पर रिलीज़ हुई ‘गुलाबो सिताबो’ जिसे रिलीज़ तो थिएटर में होना था मगर कोरोना क्या ना करवाए। कहानी लखनऊ के गलियों के बीच हवेली, जवानी, किराएदार और लालच के इर्द-गिर्द लिखी गई है।

हवेली, किराएदार, मिर्ज़ा और बेगम के ईर्द-गिर्द रची बुनी है कहानी

लखनऊ में है फातिमा महल जिसकी कागजी तौर पर मालकिन तो बेगम है मगर सब कुछ उसका पति मिर्ज़ा ही हैंडल करता है। मिर्ज़ा जो अपने पत्नी से एक रत्ती भर भी प्यार नहीं करता, मगर अपने महल को माशूका जितना ही प्यार करता है। उसे अपने महल से इतना प्यार है कि वो डर के मारे बच्चे पैदा नहीं करता क्योंकि महल फिर उस बच्चे का हो जाएगा।

हवेली का मालिक बनने का शौक तो उसे इतना है कि रात दिन वो बेगम के मरने की दुआएं करती रहता है। महल के कुछ हिस्से में किराएदार रहते हैं जिनकी कई पुस्तें यहां गुज़र चुकी हैं। 78 साल का बूढ़ा मिर्ज़ा इतना लालची और खडूस मकान मालिक है कि किराए के पैसे के लिए वह हमेशा अपने किराएदारों से लड़ते-झगड़ते रहता है। खासकर फिल्म में बांके किरदार निभा रहे आयुष्मान खुराना से।

फिल्म का एक दृश्य

जब भी कोई किराएदार किराया देने में आनाकानी, लेटलतीफी करता है खडूस मिर्ज़ा उसके कमरे की लाइट काट देता है और कमरा का खाली करने की धमकी देता है।

बांके से तो उसका छत्तीस का आंकड़ा है क्योंकि बांके उसके धमकियों से नहीं डरता और उल्टा उसे ही हड़काता रहता है। ये किराएदार महल में इतना समय गुजार चुके हैं कि अब उनके अंदर महल को कब्जा करने की भावना आ गई है।

महल पर कब्जा हो जाने से डरता है मिर्ज़ा

उधर मिर्ज़ा को इस बात का डर रहता है कि कहीं ये लोग इस महल को कब्जा ना करले, इसलिए वह इसे बेचना चाहता है। महल को बेचने के चक्कर में बात इतनी आगे बढ़ जाती है कि इसमें वकील, पुरातत्व विभाग और प्रॉपर्टी डिलर्स की भी एंट्री हो जाती है।

अब क्या मिर्ज़ा बांके समेत सभी किरदारों को निकाल पाएगा? क्या किराएदार आसानी से महल को छोड़ देंगे? क्या मिर्जा इस महल को बेचने में कामयाब हो पाएगा? वकील,नेता क्या इस महल के मसले को सुलझा पाएंगे या इनके लड़ाई में बाज़ी कोई तीसरा ही मार जाएगा?

ज़ाहिर है आप इन सवालों के जवाब जानना चाह रहे होंगे। इसके लिए आपको अमेजॉन प्राइम पर यह फिल्म देखनी होगी।

कलाकारों ने डाल दी है फिल्म में जान

कलाकारों के काम की बात करें तो मिर्ज़ा के रोल को अमिताभ बच्चन ने निभाकर एकदम जिंदा कर दिया है। 78 साल का बुड्ढा जिसका कूबड़ निकला है। निहायत ही कंजूस और खडूस हो। उसके किरदार को निभाने के लिए अमिताभ बच्चन से बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता था।

किराएदारों से झुंझलाना हो, उनसे झगड़ना या लालच के लिए कुछ भी करना हो ये सब अमिताभ बच्चन ने बड़े ही उम्दा तरीके से निभाया है। आयुष्मान ने बांके का किरदार निभाया है, जो है तो एक किराएदार मगर हमेशा मिर्ज़ा को तंग करता रहता है। आमतौर पर किराएदार, मकान मालिक के साथ ऐसा नहीं करते।

आयुष्मान का एक्टिंग स्केल इतना वाइड हो चुका है कि वह इन किरदार को चुटकियों में निभा देते हैं। टॉयलेट जाने के लिए लंबा इंतज़ार करने पर टॉयलेट को तोड़ देना हो, एक ग्रुप बनाकर मिर्ज़ा पर चढ़ाई करनी हो या फिर अपनी प्रेमिका के साथ मजेदार नोकझोंक का सीन हो सबको आयुष्मान ने एकदम रियल बना दिया है।

सबसे ज़्यादा आकर्षित करने का वाला किरदार है फारुख जफर का जो बेगम बनी हैं। उनके सामने कैमरा कम ही जाता है, मगर जब जाता है तो वो एकदम छा जाती हैं। उनका पति उनके अंगूठे के निशान ना ले ले, इसके लिए वो अपने उंगलियों में बैंडेड लपेट लेती हैं। सपोर्टिंग रोल में विजय राज और बृजेन्द्र काला फिल्म को हास्य रूप देने का काम करते हैं।

लेखक, डायरेक्टर और सिनेमैटोग्राफर ने भी किया है बेहतरीन काम

राइटर जूही चतुर्वेदी ने लखनऊ, महल, मिर्ज़ा, बेगम और किराएदार को जोड़कर एक बेहद ही सराहनीय और नई कहानी लिखी है। इसमें कॉमेडी, रोमांस, नोकझोंक और अंत में इमोशन को भी शामिल किया है। ऐसी कहानी को डायरेक्टर सुजीत सरकार से बेहतर कोई और हैंडल नहीं कर सकता था।

शूजीत सरकार भी हमेशा की तरह छा गए हैं। सिनेमैटोग्राफर अविक मुखोपाध्याय ने उनका भरपूर सहयोग किया है जिन्होंने अपने कैमरे से लखनऊ को बखूबी कैद किया है। सिचुएशन के हिसाब से 2-3 गाने भी हैं जो एकदम सटीक है। इतना कुछ होने पर भी आपको यह फिल्म कई जगहों पर स्लो और सपाट लग सकती है, हालांकि क्लाइमैक्स देखकर आप इसको भूल जाएंगे और ताली बजाने पर मजबूर हो जाएंगे।

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