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मेंटल हेल्थ पर बनी बॉलीवुड की ये 10 फिल्में देखनी चाहिए

films on mental health

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भारत में लोग फिल्मों के बड़े शौकीन हैं। देश में जनता तक कोई सामाजिक संदेश पहुचाना हो तो उसके लिए फिल्म बहुत ही सक्रिय माध्यम है। आज कल हम देखते हैं कि देश की कितनी बड़ी आबादी मानसिक रोगों से पीड़ित है लेकिन अधिकांश लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं है।

उन्हें लगता है या तो इंसान पागल हो गया है, या तो मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित ऐसी कोई बीमारी होती ही नहीं है। ऐसे में बहुत ज़रूरी हो गया है कि लोगों तक यह संदेश पहुंचे कि आखिर मानसिक रोग है क्या?

हिन्दी सिनेमा में मानसिक स्वास्थ्य पर बनी हैं कई फिल्में

मानसिक रोग क्या है? यह बताने के लिए हिंदी सिनेमा से अधिक उपयोगी माध्यम कोई हो ही नहीं सकता। हिंदी सिनेमा ने मानसिक स्वास्थ्य जैसे जटिल विषय को बड़ी सरलता और रचनात्मक ढंग से जनता के सामने पेश भी किया है जिससे लोग बहुत हद तक यह जान पाए है कि मानसिक स्वास्थ्य जैसा भी कोई विषय है।

सबसे खास बात यह रही है कि बॉलीवुड फिल्मों ने मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित लगभग हर विषय पर काम किया गया है। जैसे बहुव्यक्तित्व विकार के बारे में फिल्म ‘भूल भुलैया (2007) और कार्तिक कालिंग कार्तिक (2007) ‘ ने बहुत ही रचनात्मक ढंग से लोगों को बताया।

मेंटल हेल्थ पर बनी कुछ फिल्में

सिजोफ्रेनिया जैसे रोग को ’15 पार्क एवेन्यू’ (2005) और ‘वो लम्हे’ (2005) जैसी फिल्मों ने लोगों तक पहुंचाया। सब्सटैंस अब्यूज़ डिसऑर्डर को ‘देवदास’ (2002) और ‘देव डी’ (2009), पर्सनालिटी डिसऑर्डर को ‘राज़’  (2002) ने, एंग्जायटी को ‘छोटी सी- बात'(1975) और ‘अनुपमा’ (1966), व्यापित विकासात्मक अव्यवस्था को ‘माई नेम इज खान’ (2010) और ‘बर्फी’ (2012) जैसी शानदार फिल्मों ने लोगों को अलग-अलग तरह से मानसिक रोगों के बारे में बताने की कोशिश की है।

2009 में आई फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ हमने ना जानें कितनी ही बार देखी होगी। यह फिल्म मनोरंजन के साथ हमें समाज का वह दर्पण दिखाती है जिसमें हम सभी अपना प्रतिबिम्ब देख सकते हैं। इस फिल्म ने मेन्टल प्रेशर और उसके परिणाम को बखूबी समझाया है।

वहीं, 2016 में आई ‘डिअर ज़िंदगी’ फिल्म जिसमें एक लड़की इंसोम्निया से पीड़ित होती है। वह अपनी बीमारी से कैसे निकल कर ज़िंदगी को नए एंगल से देखती है, यह बताया गया है। फिल्म की किरदार कियारा इस बीमारी से निकलने के लिए मनोचिकित्सक की सहायता भी लेती है।

मनोचिकित्सक की सहायता लेने में नहीं होनी चाहिए कोई शर्म

ये फिल्में कहीं-न-कहीं लोगों तक इस बात को पहुंचती हैं कि अगर कोई किसी तरह के मानसिक रोग से पीड़ित है, तो मनोचिकित्सक की सहायता लेने में कोई शर्म नहीं करनी चाहिए। इस फिल्म ने जो प्रयोग किया वह बखूबी पर्दे पर आया और यह लोगों को बहुत पसंद भी आया है।

हिंदी सिनेमा हमेशा से अलग-अलग विषयों पर प्रयोग करता रहा है। मानसिक स्वास्थ्य पर भी कई प्रयोग किए गए जो सफल भी रहे, मगर साथ ही साथ मानसिक स्वास्थ्य के सम्बंधित कई विषयों को काफी नाटकीय ढंग से भी पेश किया गया। इसमें अधिकतर मानसिक रोगों का इलाज जिस प्रकार दिखाया गया उससे निश्चित ही लोगों के मन में मानसिक इलाज को लेकर एक डर बैठ गया।

प्रतीकात्मक तस्वीर

कई फिल्मों ने इलाज को किया है गलत ढंग से पेश

मैंने भी बचपन से जितनी फिल्में देखी हैं, उनमें अगर कोई रोगी पागल खाने में है तो उसे बस इलेक्ट्रिक शौक (एलेक्ट्रोकंक्लुसिव थेरेपी) के द्वारा ही ठीक किया जाता था। जैसा ‘राजा, दामिनी, खामोशी, रात और दिन ‘ आदि फिल्मों में दिखाया गया है। जो सच नहीं है।

मानसिक रोग से पीड़ित लोगों को बहुत से तरीकों से ठीक किया जाता है। ऐसे में डरावने तरीकों को फिल्मों में देखकर लोगों द्वारा अपने मन में डर बनना स्वाभाविक है। इस डर से भी बहुत लोग मनोचिकित्सक के पास जाने से कतराते हैं।

भारतीय फिल्मों ने मानसिक स्वास्थ्य जैसे विषयों को बहुत खूबसूरती के साथ पेश किया है लेकिन उसमें भी बहुत से भाग ऐसे हैं जिन पर ध्यान देना की ज़रूरत है।

सिनेमा का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ समाज के सामने उनका ही दर्पण रचनात्मक ढंग से पेश करना है। फिल्मों को लोगों तक मानसिक स्वास्थ्य जैसे विषय को सकारात्मक ढंग से पेश करना चाहिए जिससे लोग इस विषय के बारे में ठीक और सही समझ बना सकें।

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