अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में हुई मौत के बाद से अमेरिका के कई शहरों में भड़की हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। इसी भड़की हिंसा के भीड़ के कुछ शरारती तत्त्वों ने महात्मा गाँधी की प्रतिमा पर आपत्तिजनक शब्द लिख कर नुकसान पहुंचाया।
इस प्रतिमा का अनावरण पूर्ण प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेयी और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपत्ति विलियम जेफरसन क्लिंटन ने किया था। इस घटना पर अमेरिकी प्रशासन ने दुख जताया है और माफी मांग ली है। इसके अलावा उत्पन्न रोष को शांत करने के दिशा में पहल किया है।
गाँधी पर नस्लवाद का आरोप
अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में यह आम चलन है कि किसी भी विषय पर आक्रोशित भीड़ गुस्से में किसी भी मूर्ति को अपना शिकार बनाती है जिससे उस मूर्ति के जुड़े समुदाय की भावना आहत हो जाती है। महात्मा गाँधी की प्रतिमा को तोड़ने का कृत्य विदेशों में ही नहीं, बल्कि उनके खुद के देश में भी होती रहती है।
महात्मा गाँधी की प्रतिमा तोड़ने वाले शरारती तत्त्व महात्मा गाँधी पर नस्लवादी होने का आरोप लगा रहे हैं। गाँधी को नस्लवादी कहने का सारा वबाल 2015 में उस वक्त शुरू हुआ था, जब अश्विन देसाई और गुलाम वाहिद ने द साउथ अफ़्रीकन गाँधी: स्ट्रेचर बियरर ऑफ अंपायर नामक एक किताब लिखी। इसी किताब के बाद पहली बार जोहान्सबर्ग में लगी युवा गाँधी की मूर्ति पर सफेद पेंट की बालटियां फेंकी गई।
मूर्तियों को खंडित करने से विचारधाराएं खत्म नहीं होती हैं
गोया भारत में भी महात्मा गाँधी पर तरह-तरह के हमले होते रहते हैं। इन हमलों में सबसे रोचक हमला यह है कि उन्हें किसी ऐतिहासिक हस्ती के आगे खड़ा करते हुए बहुसंख्यक जनता का शत्रु बना दिया जाता है, जिसके तहत उन्हें नैतिक रूप से पतीत, नस्लवादी और सवर्ण राजनीति का पोषक तक कहा जाता है।
मगर कुछ तो बात है कि मिटती नहीं है हस्ती हमारी! मानवता की अपनी चादर झाड़कर महात्मा गाँधी फिर खड़े हो जाते हैं। आक्रोशित भीड़ या सुनियोजित साज़िश करने वाले तत्त्व यह कभी नहीं समझ पाते कि मूर्तियों के तोड़ने भर से या उस विचारधारा की किताबे जलाने भर से किसी भी उस व्यक्ति की विचारधारा को कभी नस्तनाबूत नहीं की जा सकती है। यह ज़रूर है कि इससे अपनी मूढ़ता का खुलेआम प्रदर्शन होता है।
मूर्ति-भंजकों के पास तर्क शक्ति की कमी
महात्मा गाँधी विश्व के तमाम विभूतियों में वो व्यक्ति हैं, जो जितने पारंपरिक लगते हैं उससे कहीं ज़्यादा आधुनिक भी प्रतीत होते हैं। तभी तो जब गाँधीवाद की प्रासंगिकता धीमी होने लगती है, तब वो गाँधीगिरी के रूप में फिर से जीवित हो जाते हैं।
उन्होंने मानवाधिकार की चादर ओढ़कर हाथों में जो अहिंसा की लाठी थाम रखी है, उसके खिलाफ हर सदी के तर्कवाद फीके पड़ जाते हैं।
कमोबेश यही स्थिति उन सभी विचारधाराओं के साथ है जिनका संबंध मानवतावाद के साथ है। तत्त्कालीन कुंठा के कारण भले बीच चौक पर खड़ी उस विचारधारा के पथ प्रदर्शक की मूर्ति तोड़ दी जाए मगर उस विचारधारा का दमन तो कभी नहीं किया जा सकता है।
मूर्ति-भंजकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनके पास तर्क शक्त्ति तो होती ही नहीं है। शक्ति के दम पर वे अपने दंभ का प्रदर्शन करते हैं, जिससे उनका दंभ संतोष तो पा लेता है और तत्कालीन राजनीति भी थोड़ी देर के लिए अपना रास्ता खोज लेती है परंतु वह अधिक देर तक टिक नहीं पाती है, क्योंकि ताकत के बल पर थोपी गई विचारधारा झूठ की बुनियाद पर टिकी होती है।
बुद्ध की मूर्तियां भी ज़मींदोज़ की गई थीं
नया समाज और नई दुनिया ताकत के दंभ पर नहीं, बल्कि मानवीय सरोकार के आधार पर फिर खड़ा हो जाता है।
दुनियाभर में ना जाने कितनी ही मूर्तियां बनाई गई होंगी इस ख्याल से कि आने वाली नस्लें अमुख इंसान के विचार और उसके योगदान को परखकर अपने जीवन को निखारेगा।
देश और सरकारों को अब मूर्ति भजकों का भी इतिहास ज़रूर दर्ज़ करना चाहिए ताकि आने वाली नस्लें यह भी जान सकें कि मानवता, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व कभी नहीं खत्म होने वाले विचार हैं।
ना जाने कितनी ही बुद्ध की मूर्तियां ज़मींदोज़ कर दी गई मगर मानवता को दिया गया उनका संदेश आज भी मौजूद है। मूर्तियां तो वैसे भी बेजान होती हैं, जान तो विचारों में होते हैं जो अजर भी हो जाते हैं और अमर भी!
“गाँधी नस्लवादी थे” जैसे विचारों को असल में अरुंधति रॉय ने ही दुनिया के सामने अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में कहा था। उनका अपना तर्क यह रहा है कि बाबा साहब हीरो थे और गाँधी पीटे हुए नायक। इन सबका ज़िक्र उन्होंने अपनी किताब एक था डॉक्टर एक था संत: आंबेडकर- गाँधी संवाद में किया भी है।