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लखनऊ के लहज़े और खूबसूरत गलियों से रूबरू कराती फिल्म गुलाबो-सिताबो

gulabo sitabo

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कहते हैं “लालच बुरी बला है” बस इसी सोच पर आधारित है हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म ”गुलाबो-सिताबो।” वैसे तो इन दिनों हर चीज़ पहली बार हो रही है। जैसे- लोग पहली बार घरों में बैठ रहे हैं। पहली बार इतनी सारी आफत धरती पर एक साथ बरस रही है।

इसी तरह बॉलीवुड के इतिहास में फिल्म ”गुलाबो सिताबो” पहली फिल्म है, जो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई है। शूजित सरकार के निर्देशन में बनी यह फिल्म आपको हंसाने के साथ-साथ लखनऊ की खूबसूरत गलियों व लहज़ै से भी रूबरू कराएगी।

फिल्म को लेकर शूजित सरकार ने ठीक कहा कि गुलाबो-सिताबो फुर्सत से देखिए और अगर फुर्सत ना हो तो फुर्सत निकालकर इत्मीनान से देखिए।

फिल्म की कहानी

गुलाबो-सिताबो फिल्म का एक दृश्य। फोटो साभार- अमेजन प्राइम

फिल्म की कहानी ”फातिमा महल” नाम की एक पुरानी हवेली के इर्द-गिर्द घूमती है, जहां मिर्ज़ा (अमिताभ बच्चन) अपने बहुत से किरायेदारों के साथ रहते हैं। उन्हीं किरायेदारों में से एक हैं बांके (आयुष्मान खुराना), जिनको मिर्ज़ा एक आंख नहीं सुहाता! मिर्ज़ा बहुत ही लालची होने के साथ-साथ चिड़चिड़े किस्म के इंसान हैं।

मिर्ज़ा अपनी हवेली को बेचना चाहते हैं लेकिन यहां समस्या यह है कि उनकी यह हवली उनके बेगम के नाम पर है, जिसके मरने का इंतज़ार मिर्ज़ा काफी समय से कर रहे हैं। मिर्ज़ा के लालच का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हवेली के हिस्से ना हों, इसके लिए वो कोई औलाद भी नहीं पैदा करते हैं।

बांके सिर्फ 30 रुपये किराए पर हवेली में अपनी माँ और 3 बहनों के साथ रह रहा है। यहां दिक्कत यह है कि 30 रुपये किराया भी बांके अपने मकानमालिक को नहीं दे रहा है। ऐसी स्थिति में मिर्ज़ा उसे हवेली से निकालना चाहते हैं।

क्लाइमेक्स

अब इन्हीं मसलों को लेकर एक दिन मामला पुलिस स्टेशन पहुंच जाता है, जहां से पुरात्तव विभाग की नज़र इस हवेली पर पड़ जाती है। वहीं, दूसरी तरफ मिर्ज़ा, बांके को हवेली से निकालने और हवेली पर कब्ज़ा करने की जद्दोजहद में कोर्ट- कचहरी के चक्कर में पड़ जाते हैं।

इसके बाद शुरू होती है फिल्म में हवेली पर कब्ज़ा जमाने की होड़, जिसका लुत्फ लेने के लिए आपको इस फिल्म की ओर रुख करना होगा। फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत हैरान करने वाला है। असल में यही फिल्म का सबसे दिलचस्प हिस्सा है।

एक्टिंग और स्टोरी के अलावा सिनेमेटोग्राफी भी काबिल-ए-तारीफ है

इस फिल्म में ऐसा कोई किरदार नहीं है, जो किसी दूसरे से कम या ज़्यादा लगा हो। सबने अपने-अपने रोल को बखूबी निभाया है। 78 साल के बुज़ुर्ग बने मिर्ज़ा ने फिल्म में हर किसी से झगड़ा मोल लिया है।

बांके की मिर्ज़ा से तीखी नोकझोंक और दोनों का लखनवी अंदाज़ आपको इस फिल्म से और मुहब्बत करने पर मजबूर कर देगा। वहीं, लखनऊ की हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ों को पर्दे पर दिखाने की कोशिश की गई है। चाहे वह पतली गलियां हों या इमामबाड़ा।

अमिताभ और आयुष्मान के अलावा बेगम बनी फारुख ज़फर ने भी कमाल का काम किया है, जो सब जानती हैं कि उनके पति के दिमाग में हवेली को लेकर क्या चल रहा है लेकिन वो अपने टर्न का इंतज़ार करती हैं। फिल्म में उनके डायलॉग कम भले ही हैं लेकिन उनकी शरारती आंखों ने स्क्रीन पर जादू बिखेर दिया है।

क्यों देखें?

फिल्म में हवेली को लेकर जो जतन किए जा रहे हैं, उसका लड्डू कौन खाएगा? यह जानने के लिए फिल्म ज़रूर देखें। यही फिल्म का सबसे दिलचस्प हिस्सा है।

एक छोटे शहर में बुनी गई इस मज़ेदार कहानी को आपको देखना चाहिए। बेगम खुद से 17 साल छोटे मिर्ज़ा से क्यों शादी करती हैं. यह जानने के लिए भी आपको फिल्म का रुख करना चाहिए।

क्यों ना देखें?

फिल्म बीच में थोड़ी स्लो हो जाती है, जिससे आप ऊब सकते हैं।

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