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“जहां मज़दूर पुलिस से थप्पड़ खाए, वहां रंगभेद के विरोध में उठती आवाज़ें बेमानी हैं”

आजकल एक मुद्दा सोशल मीडिया पर ज़्यादा ज़ोर पकड़ रहा है, जिसमें हज़ारों सालों से चली आ रही प्रथा का पूर्वाग्रह भी शामिल है। जी हां, आप ठीक समझ रहे हैं। मैं अमेरिका के जॉर्ज फ्लॉयड की बात कर रही हूं।

उनके यह कहने के बावजूद कि वो सांस नहीं ले पा रहे हैं, उन्हें दम निकलने तक घुटने के नीचे दबाकर रखा गया। वो गुहार, वो तड़प और वो उम्मीद उन आंखों से मर गई, जो हर अश्वेत अमेरिकी ने देखी है।

पूरा विश्व इस मुद्दे की भर्त्सना कर रहा है। वहीं, भारत में भी इस मुद्दे को लेकर कड़ी चर्चा और विरोध हुआ है मगर मेरे मन मस्तिष्क में कुछ सवाल हैं, जो लोगों की इस जागरूकता पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं।

हम अमेरिका में हो रहे मुद्दे से इतने आहात हैं। जबकि हम खुद इतने सारे पूर्वाग्रह पाल बैठे हैं। सन् 1946 में भारत पहला देश था, जिसने रंगभेद के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया। बाद में यही मुद्दा विश्व समुदाय की चिंता का मुख्य विषय बना था मगर क्या भारत में भी यह समस्या खत्म हो गई है? तो इसका जवाब है नहीं!

इस समस्या से मिली जुली कई और समस्याओं ने जन्म ले लिया है। रंगभेद कहने को नहीं होता है मगर भारत में पूर्वाग्रही सोच अब भी हावी है। बिहार से आने वाले मज़दूर वर्ग को उतर भारत में इंसान नहीं माना जाता है।

अगर इनके साथ या इनकी औरतों के साथ कोई समस्या या इव टीज़िंग हो जाए तो पहली दफा में पुलिस सुनती तक नहीं है। अगर सुन भी ले तो वो सीधे मुंह इनकी बात  पर विश्वास करना जायज़ नहीं समझती है।

कई दफे पुलिस वालों को देखा है कि गलती किसी की भी हो मगर आते ही मज़दूर को थप्पड़ जड़ देते हैं। ये पूर्वाग्रह ही तो है जिसमें हमें लगता है कि बिहार से आने वाला हर शख्स या फिर मज़दूर वर्ग चोर है। जहां मज़दूर पुलिस से थप्पड़ खाता हो, वहां रंगभेद के विरोध में उठती आवाज़ें बेमानी हैं।

हम यह मानकर चलते हैं कि वे गरीब हैं तो कुछ भी कर सकते हैं, चोरी भी और गलती भी। रोड पर चलते हुए अगर लापरवाही कार वाले की भी हो तो भी वो राह चलते मज़दूर या गरीब पर बरस पड़ता है।

वहीं, अगर सामने वाला बराबर का है तो सर जी, सॉरी सर जी कहकर बात निपटाया जाता है। ऐसे कितने ही पूर्वग्रह हैं जिनमें जीते-जीते हम मानवता का मतलब भूल गए हैं। पुलिस भी जब अपना काम करती है, तो गरीब को अपने हवाले से ही चोर मानकर चलती है। कारण वही पूर्वाग्रह कि गरीब भूख के लिए चोरी कर सकता है।

किसी मुस्लिम को देखकर मान लेते हैं कि मुस्लिम है तो आतंकवादी ही होगा या देशद्रोही ही होगा। ब्राह्मण या जाट है तो रसूख वाला ही होगा। यही नही, अनुसूचित जाति के लोगों के लिए भी एक पूर्वाग्रह रखते हैं कि वे अनुसूचित जाति से हैं, तो जाट, ब्राह्मण और राजपूत की बराबरी नहीं कर सकता है।

ये तमाम पूर्वाग्रह ही तो हैं जिनके कारण आज भी ऑनर किलिंग हमारे समाज का हिस्सा है अभी तक। महज़ खुद को यह दर्शाने से कि आप मुद्दों की समझ रखकर उन पर अपनी आवाज़ उठाते हैं, आप उन पूर्वाग्रहों से निकले नहीं हैं।

कहीं ना कहीं ये सारे पूर्वाग्रह हमारे मन मस्तिष्क के हिस्से में रच बस गए हैं। जब तक हम खुद इन खुद के बनाए और सदियों से चलते आ रहे पूर्वाग्रहों से नहीं निकलेंगे तब तक ये काले-गोरे, अमीर-गरीब, हिन्दू-मुस्लिम और जाति-धर्म जैसे मुद्दे ऐसे ही उठते रहेंगे।

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