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छत्तीसगढ़ के आदिवासी ट्यूब के ज़रिये कैसे बनाते हैं गुलेल

हमारे छत्तीसगढ़ के ग्रामीण वनांचल क्षेत्रों के आदिवासी बांस की लकड़ी, पत्थर आदि इस्तेमाल करके बहुत से हथियार और औजार बनाते हैं। इनमें से कुछ हैं तीर-धनुष, जिसे ग्रामीण क्षेत्रों में धनुष-चिवांर कहते हैं, कुल्हाड़ी, जिसे टगिया के नाम से जाना जाता है और भाला।

इनका उपयोग प्रायः जंगली जानवरों से स्वयं की रक्षा, पुराने दिनों में शिकार और लकड़ी काटने के लिए होता है। ऐसा ही एक और औजार है, जिसे गुलेल कहते हैं। यह देखने में बहुत ही छोटा है लेकिन इसका उपयोग छोटे जीव-जंतुओं का शिकार करने के लिए किया जाता था।

गुलेल एक ऐसा उपकरण है जो लकड़ी के V, Y और X आकार से बनाया जाता है। साइकिल के पहियों में इस्तेमाल होने वाली पुरानी ट्यूब से गुलेल बनाया जाता है। सबसे पहले ट्यूब को पतले हिस्सों में बांट लिया जाता है। इन हिस्सों की लंबाई-चौड़ाई को समान रखकर दोनों ट्यूब को लकड़ी पर बांध दिया जाता है।

ट्यूब को ट्यूब से ही बांधते हैं। लकड़ी के अगले छोरों पर मोटे कपड़े को बांध दिया जाता है ताकि उसमें छोटे पत्थरों को फंसाकर चलाया जा सके। एक हाथ में लकड़ी को पकड़कर दूसरे हाथ से इस कपड़े को अपनी ओर खींचा जाता है फिर जिस चीज़ पर निशाना लगा हो, उस पर गुलेल में पकड़ी गोली को छोड़ा जाता है। गोली के लिए छोटे पत्थरों का उपयोग होता है। 

गुलेल केवल हवा से हवा मारक यंत्र है। इसका उपयोग हम पानी के भीतर नहीं कर सकते हैं। गुलेल चलाने के लिए मन और आंखो की एकाग्रता बहुत ज़रूरी है, तभी निशाना साधा जा सकता है। इसको चलाने के लिए ज़्यादा मेहनत नहीं लगती है लेकिन निशान साधने के लिए अभ्यास की ज़रूरत है। 

गुलेल इस्तेमाल करते समय सावधानी बरतना ज़रूरी है

गुलेल बनाते हुए राकेश।

गुलेल का प्रयोग करते समय हाथों को नियंत्रण में रखना बहुत ही ज़रूरी होता है। अगर थोड़ी सी भी गलती या चूक होती है, तो गुलेल चलाने वाले के साथ-साथ दूसरे को भी हानी पहुंच सकती है।

यह कभी-कभी जीव-जंतुओं को भी लग सकता है। इसलिए गुलेल चलाते समय ठीक से ध्यान देना होता है। यह सिर्फ एक यंत्र है, इसका किस लिए उपयोग हो रहा है, इसका भी ध्यान रखना है।

फसल बचाने के लिए गुलेल का प्रयोग

हमारे छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में गुलेल का प्रयोग लगभग हर कोई करता है। फसलों की सुरक्षा की दृष्टि से यह बहुत ही मददगार सिद्ध होता है। धान, मक्का और गेहूं जैसे खेतों की फसल को गिलहरी, पशु, चिड़ियां बरबाद करती है जिससे किसानों का नुकसान होता है।

किसानों के जीवन निर्वाह के लिए फसल बहुत ही आवश्यक होता है। इन पशु-पक्षियों को भगाने के लिए और फसल की रक्षा करने के लिए गुलेल का इस्तेमाल किया जाता है।

मनोरंजन का साधन गुलेल प्रतियोगिताएँ 

गाँव के लोग मनोरंजन के लिए अपने-अपने सहपाठियों के साथ गुलेल से  निशाना लगाने की प्रतियोगिता भी आयोजित करते हैं, जिसका आनंद लोग बखूबी लेते हैं। इस प्रतियोगिता को देखने के लिए गाँव के लोग इकट्ठा होते हैं और बीच-बीच में राय देते रहते हैं कि किस चीज़ को निशाना बनाया जाए और यह कितनी दूरी पर रखा जाए।

अगर किसी का निशाना लग जाए, तो उसकी बहुत प्रशंसा होती है और अगर नहीं लगी तो लोग मज़ाक-मज़ाक में बहुत हंसते हैं। यह गाँव के लिए बड़ा मज़ेदार खेल होता है।

हाथों से बने हुए गुलेल हो रहे हैं कम 

हम एक आधुनिक दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं। आजकल शहरों या गाँवों में लगने वाले बाज़ारों में बने हुए गुलेल मिल जाते हैं, जो ट्यूब से बने हुए गुलेल से ज़्यादा मज़बूत और टिकाऊ होते हैं। इसी कारण बाज़ार में मिलने वाले गुलेल का प्रयोग लोग अधिक करते हैं।

ऐसे समय में साइकिल के ट्यूब से गुलेल बनना बंद हो गया है लेकिन मेरे गाँव में ऐसे भी कई लोग हैं, जो इन चीज़ों को हाथ से बनाना पसंद करते हैं और मुझे भी इसमें बड़ा मज़ा आता है।

बाज़ार में कितना भी समान मिलें, आदिवासियों की खासियत ही है आत्मनिर्भरता। अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए अपने हाथों से चीज़ों का निर्माण करना आदिवासियों की संस्कृति में शामिल है। मैं इस प्रथा को ज़िंदा रखना चाहता हूं।


नोट: यह लेख ‘Adivasi Awaaz’ प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है। इसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।

लेखक के बारे में- राकेश नागदेव छत्तीसगढ़ के निवासी हैं और मोबाइल रिपेयरिंग का काम करते हैं। वो खुद की दुकान भी चलाते हैं। इन्हें लोगों के साथ मिल जुलकर रहना पसंद है और वो लोगों को अपने काम और कार्य से खुश करना चाहते हैं। उन्हें गाने का और जंगलों में प्रकृति के बीच समय बिताने का बहुत शौक है।

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