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“कोरोना महामारी ने मुझसे मेरी नौकरी छीन ली, तीन महीने से घर पर हूं”

हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां व्यक्ति को सोच, समझ और चरित्र से नहीं, बल्कि आमदनी से आंका जाता है। पिछले कुछ महीनों से मैं समाज के इस पैमाने पर जगह बनाने के जद्दोजहद में हाशिये पर आ गया हूं।

बहुत कुछ बोलना और लिखना चाहता हूं मगर शब्द नहीं मिल रहे हैं। खबरिया चैनल जिन बेरोज़गारों की बात करते हैं, अब मैं भी उन आंकड़ों में शामिल हो गया हूं।

आज 3 महीने से घर पर हूं। महामारी ने शरीर पर तो नहीं मगर मेरे रोज़गार पर ज़रूर हमला किया है। उम्र के इस पड़ाव पर जहां दुनिया को कदमों में झुकाने का हौसला होता है, मैं इस वक्त अपना रिज़्यूमे लेकर समाज में अपने लिए जगह निश्चित कर रहा हूं।

अपने इस हाल के लिए किसे ज़िम्मेदार कहूं?

इस अदृश्य शत्रु (कोरोना) को जिसने पूरे विश्व को घुटने टेकने पर विवश कर दिया है या फिर अपनी सरकार को जो आपदा को अवसर बनाने की बात कहकर अपना पल्ला झाड़ रहा है या फिर अपनी किस्मत पर भड़ास निकालू?

सच में मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं क्या लिख रहा हूं? जब स्कूल में अर्थशास्त्र की किताब में बेरोज़गारी पर पढ़ाया जाता था तब समझ नहीं आता था कि यह कितनी भयानक होती है लेकिन अब पिछले 3 महीने में पूरा बेरोज़गारी का अध्याय समझ गया हूं।

सरकार के उपायों में देरी कई लोगों के लिए मौत का आमंत्रण है

कई लोगों को सड़क पर सब्ज़ी बेचते हुए देख रहा हूं और कई लोगों को पकौड़ा तलते हुए! पूछने की हिम्मत नहीं होती कि भाई आपलोग आपदा को अवसर बना रहे हो या प्रधान सेवक की बात को प्रासंगिक कर रहे हो?

सच में डर लगता है इस घोषित महामारी से नहीं, बल्कि उस अघोषित महामारी से जिसको किताबों में बेरोज़गारी बोला जाता है। राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों के अपने-अपने दावे हैं कि बेरोजगारों के लिए उनके पास बेहतर उपाय है मगर जब तक सरकार उस पर अमल करेगी तब तक कितने ही लोग बेरोज़गारी के आंकड़े से निकलकर आत्महत्या के आंकड़ों में अपना नाम लिखा चुके होंगे।

बेरोज़गारी की आग मुझे कब्र की ओर ढकेल रही है

सामाजिक दूरी बनाने को बोला गया था मगर ये इस तरह से होगा सोचा नहीं था। अब समाज से ही दूर हो रहा हूं। मन में कई तरह के विचार रात को सोने नहीं देते हैं। लाइट ऑफ करने से अपना भविष्य भी अंधकार में दिखता है। दूर तक केवल अकेलापन ही नज़र आता है।

खबरिया चैनलों ने जब से ग्रैजुएट, डिप्लोमा, इंजीनियर जैसे डिग्री धारकों को मनरेगा में गड्ढा खोदते हुए दिखाया है, उन्हीं गड्ढों में अपना कब्र दिखने लगा है।

नकारात्मक विचारों ने मेरे मन को अपने काबू में कर लिया है। लिखने को तो बहुत कुछ है, बेरोज़गारी पर कई आंकड़े हैं जो दिनभर खबरिया चैनलों पर चलते रहते हैं मगर मेरे समझ में ऐसा कोई आंकड़ा या गणित नहीं है जो इस वक्त के मेरे मनोस्थिति को बता पाए।

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