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केरल में देविका की आत्महत्या के बाद वर्चुअल शिक्षा पर मंथन करना ज़रूरी है

कोरोना महामारी के कारण केरल ने अपने 40 लाख से भी अधिक बच्चों के लिए 1 जून से वर्चुअल कक्षाओं की शुरुआत की। राज्य सरकार द्वारा यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया कि स्कूली बच्चों को स्मार्टफोन, टीवी और इंटरनेट के ज़रिये शिक्षा प्रदान की जा सके जिससे इस महामारी का प्रभाव उनकी पढ़ाई पर ना पड़े।

अपने अथक प्रयासों के बावजूद राज्य सरकार, कहीं ना कहीं यह आंकलन करने में असफल रही कि आज भी ना जाने कितने ऐसे गरीब परिवार हैं, जिनके पास वर्चुअल शिक्षा प्राप्त करने के लिए पर्याप्त संसाधनों की कमी है।

इसी बीच खबर आती है कि मलप्पुरम ज़िले के वालनचेरी के पास मनकेरी गाँव की दसवीं कक्षा की छात्रा बी देविका ने सोमवार शाम अपने घर के पास खुद को आग लगाकर आत्महत्या कर ली।

देविका एक गरीब दलित परिवार से थीं और घर में टीवी खराब होने और स्मार्टफोन ना उपलब्ध होने की स्थिति में वह इस बात से मानसिक तनाव में थी कि अपने सहपाठियों के साथ वह ऑनलाइन सत्र में शामिल नहीं हो पाएगी, जिसका प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ेगा।

इस दुखद आत्महत्या के बाद देविका के नोटबुक से एक नोट मिलता है जिसमे यह लिखा होता है, “मैं जा रही हूं।” कुछ ही दिन पहले मंत्री सी रवींद्रनाथ ने कहा था कि ऑनलाइन कक्षाओं के पहले वे एक सप्ताह का ट्रायल लेंगे और इस दौरान इस प्रक्रिया में किस प्रकार की कमियां आ रही हैं, उनका आकलन किया जाएगा। दुर्भाग्य से उनका यह परीक्षण एक युवा दलित छात्र की आत्महत्या का कारण बन गई।

केरल, भारत के उन राज्यों में से एक है जहां शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत काम किया जा चुका है। 2020-21 के अपने बजट में यह राज्य 493 करोड़ रुपये शिक्षा के क्षेत्र में आवंटित कर चुका है।

वही, दूसरी ओर अकेले एर्नाकुलम में ही 13,000 से अधिक बच्चों के पास स्मार्टफोन या टेलीविज़न तक उपलब्ध नही है। ऐसे में वर्चुअल शिक्षा की बात करना कितना व्यावहारिक है, यह आप समझ सकते हैं। शायद आज भी प्रशासन ज़मीनी हकीकत से काफी हद तक परिचित नहीं है।

जहां एक ओर यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना कहीं ना कहीं प्रशासनिक असफलता की ओर इशारा करती है, वहीं दूसरी ओर कोरोना महामारी के कारण पैदा हुए मानसिक तनाव का भी संकेत है, जिसका सामना हमारे समाज के गरीब परिवारों के बच्चों को करना पड़ता है।

आज पूरी दुनिया में कोरोना महामारी के कारण लिया गया लॉकडाउन का निर्णय ना जाने कितने बच्चों के लिए मानसिक प्रतारणा का एक प्रमुख कारण बनता जा रहा है। घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसी घटनाएं इन बच्चों के लिए उनके मानसिक और शारीरिक शोषण का प्रमुख कारण बन सकती हैं।

एक समाज के रूप में यह हमारी भी ज़िम्मेदारी बनती है कि हमसे जितना हो सके हम अपने समाज के हर एक बच्चे के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए वे सभी कदम उठाएं जिनकी आवश्यकता है। क्यों ना हम इसकी शुरुआत अपने घर से, अपने लोगों से ही करें?

सरकार को भी आगे आना होगा और बच्चों की मानसिक और शारीरिक स्वाथ्य सेवाओं में सार्वजनिक और निजी निवेश को बढ़ाना होगा। देश के कोने-कोने में ऐसे चाइल्ड केयर सेंटर्स खोलने होंगे जहां गरीब से गरीब बच्चे को भी अच्छा मानसिक परामर्श दिया जा सके और उनकी ज़रूरतों को समझा जा सके।

लॉकडाउन जैसे किसी भी निर्णय को लेते वक्त समाज की सिविल सोसायटी को भी उसमे शामिल किया जाए, माता-पिता से भी परामर्श लिया जाए कि किस तरह से बच्चों की शारीरिक और मानसिक विकास को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ा जा सकता है।

भला क्यों हम ऐसे निर्णय लेते समय समाज के उस वर्ग को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जिनके कंधों पर इस देश का आने वाला भविष्य टिका है?

हर बच्चे और युवा व्यक्ति के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित दुनिया का निर्माण करने की ज़रूरत है। यह तभी संभव है जब हम उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बनाई जाने वाली नीतियों का ना केवल समर्थन करें, बल्कि हर वह प्रयास करें जिससे देविका जैसे अनेकों बच्चों का सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।


संदर्भ- मुंबई मिरर, द हिन्दू

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