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“चांद पर जाने वाले देश में आज भी ग्रहण को लेकर दकियानूसी मान्यताएं हैं”

हमारे चारों ओर हर पल प्राकृतिक घटनाएं घटती रहती हैं। इनमें कुछ धरती के अंदर होती हैं, कुछ धरती के ऊपर और कुछ आकाश में। आकाशीय चीज़ों सूर्य-चन्द्रमा तारों के बीच घटित होने वाली घटनाओं को खगोलीय घटनाएं कहा जाता है।

ग्रहण एक खगोलीय घटना है। मानव एक समाज में रहने वाला प्राणी है। अत: हर वह घटना जो प्रक्रति के बीच घटती है, मानव उसको अपने समाज के साथ जोड़ता है। 

कालान्तर में इनके सामाजिक प्रभाव इतने गहराई में महसूस होते हैं कि वो हमारे ऊपर हावी हो जाते हैं। इस तरह हम उनके वैज्ञानिक कारणों और प्रभावों की तरफ देख ही नहीं पाते हैं। जबकि हमारे सामने जो पौराणिक कहनियां इन परिघटनाओं के ऊपर होती हैं, वे भी इसी वैज्ञानिक सोच के पड़ाव के रूप में होती हैं। 

अलग-अलग मतों से लेकर तथ्यों का आना ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया है

पृथ्वी और सूर्य के सम्बन्धों को आज से लगभग चार सौ साल पुराने इतिहास के झरोखे से देखिए, सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता दिखेगा। पृथ्वी, सौर परिवार का केंद्र होगी। यह उस दौर की प्रमुख ईसाई मान्यता थी, जिसके खिलाफ बोलने पर मशहूर वैज्ञानिक गैलीलियो को मार डाला गया। 

अतः अलग-अलग मतों से लेकर तथ्यों का आना ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक परिवर्तन आते हैं। लोग तर्कों के आधार पर पहली सोच को खारिज़ करते हैं और तर्कों के आधार पर ही दूसरी सोच को स्वीकार भी करते हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि दूसरी सोच पर अब सवाल उठेंगे ही नहीं।

ग्रहण का शुभ-अशुभ से लेना देना नहीं

जैसा मैंने पहले भी कहा कि ग्रहण एक नितांत खगोलीय घटना है। अतः इसका शुभ-अशुभ से कोई लेना देना नहीं है। ग्रहण होने का एकमात्र कारण पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा के सम्बन्ध हैं।

सौर परिवार में ग्रहों और उपग्रहों के प्रकाश का एकमात्र स्रोत सूर्य ही है। घूमते हुए जब चन्द्रमा और पृथ्वी इस तरह सूर्य के साथ आ जाते हैं कि उनकी छाया सूर्य को ढक देती है, तो ग्रहण जैसी स्थितियां पैदा होती हैं। 

चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण का होना

जब पृथ्वी, सूर्य एवं चन्द्रमा के बीच आ जाती है और पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ने लगती है जिससे चन्द्रमा को सूर्य का प्रकाश उस समय नहीं प्राप्त हो पाता, इस स्थिति को चन्द्रग्रहण कहा जाता है। चन्द्रग्रहण सदैव पूर्णिमा को होता है यानी जिस दिन चंद्रमा पूरा दिखता है। 

इसी तरह जब चन्द्रमा घूमते-घूमते पृथ्वी एवं सूर्य के बीच आ जाता है, तो चन्द्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है। उस दौरान सूर्य का प्रकाश पूर्ण रूप से पृथ्वी को नहीं मिल पाता है, इसे सूर्य ग्रहण कहा जाता है। इस तरह की स्थिति अमावस्या के दिन बनती है अर्थात् जिस रात चंद्रमा दिखाई नही देता है। इस स्थिति में चंद्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है। 

यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक अमावस और पूर्णमासी को ग्रहण नहीं होते। ये कभी-कभी ही होते हैं। यह भी चन्द्रमा के कक्षीय तल के झुकाव का ही परिणाम है लेकिन हम अभी इस पर नहीं जाएंगे।

ग्रहण को लेकर लोग पुराने ज़माने से से ही उत्सुक थे

ग्रहण को लेकर लोग पुराने ज़माने से से ही उत्सुक थे। लोगों ने इसको कई चीज़ों से जोड़ा। जैसे हमारे देश में सबसे ज़्यादा प्रचलित कहानी राहू-केतु की है। यह कथा समुद्र मंथन से सम्बन्धित है। महाभारत में जयद्रथ वध को भी ग्रहण से जोड़ा जाता है।

मिथ के अनुसार, कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से सूर्य को ढक दिया और कुछ देर के लिए ऐसा लगा कि सूरज ढल गया और जयद्रथ बाहर निकल आया। जैसे ही जयद्रथ बाहर निकला कि कृष्ण ने चक्र हटा दिया और सूर्य फिर से दिखने लगा और तुरंत अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया। 

ग्रहों को लेकर तंत्र-मंत्र विधान घबराहट का परिणाम

प्राचीन अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका, चीन, मेसोपोटामिया में भी ग्रहण को लेकर कई मान्यताएं थीं। ग्रहण एक बुरी घटना के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया गया था। लोग कुछ तंत्र-मंत्र, विधानों और उपायों के ज़रिये इसे हटाने का प्रयास करते थे। 

यदि इस शब्द की उत्पत्ति पर जाएं तो ग्रहण शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के Ekleipsis से हुई है, जिसका अर्थ है त्याग देना। आज की स्थितियां कुछ और हैं, यह उस दौर की बात है जब सूर्य और चन्द्रमा क्रमशः दिन-रात में प्रकाश स्रोत थे।

अगर इस नियमित रूप से चलती हुई व्यवस्था में ज़रा सा भी व्यवधान होता था, तो लोग घबरा जाते थे। यह सब तंत्र-मंत्र-विधान उसी घबराहट का परिणाम था। ग्रहण को लेकर दकियानूसी मान्यताओं का आज पूर्ण रूप से बोलबाला है।

रविवार का सूर्य ग्रहण

भारत समेत यूरोप, एशिया और ऑस्ट्रेलिया के लोग इसके प्रत्यक्षदर्शी होंगे। दुनियाभर में रविवार को लोगों ने कई तरह के तंत्रों-मंत्रों का प्रयोग किया होगा।

बीबीसी के एक समाचार के अनुसार, सन् 2001 में अफ्रीका के एक देश नाइजीरिया में ग्रहण के दौरान सैंकड़ों मुस्लिम लोगों ने ईसाईयों पर हमला करना शुरू कर दिया और कई लोग मारे गए। यहां ईसाईयों को बुरी आत्मा के रूप में देखा गया और उन पर हमला हुआ।

आज भी ग्रहण को लेकर इस तरह की मान्यताएं हैं

कुछ साल पहले तक लोग घरों के पानी और खाने को भी बाहर फेंक देते थे यदि वह ग्रहण के वक्त बिना शुद्ध किया हुआ हो। शुद्ध करने के लिए ग्रहण काल से पहले उसमें दूब या गंगा जल डाला जाता था। आज भी कई घरों में यह होता ही होगा।

ग्रहण काल में कई लोग उपवास करते हैं। किसी विशेष काल-खण्ड के अनुसार, यह विधान ठीक मालूम होते हैं परन्तु वर्तमान समय में जब ग्रहण के कारण और प्रभाव हमारे सामने हैं तो क्या इन विधानों की आवश्यकता है? यह खुद से पूछने वाला सवाल है।

ग्रहण एक खगोलीय घटना है लेकिन इसे सिर्फ एक खगोलीय घटना तक ना देखें

दरअसल, यहां सवाल है वैज्ञानिक सोच को विकसित करने का। यहां से सामाजिक विज्ञानों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। विज्ञान हमको तथ्य देता है और समाजिक विज्ञान, वर्तमान मान्यताओं के बीच उन तथ्यों को तोलता और निर्णय लेता है। हमारे देश में शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा भी कुछ ऐसा ही कहती है।

सामजिक विज्ञान के दस्तावेज़ में साफ तौर से लिखा है कि सामाजिक विज्ञान पढ़कर लोग समाज के सक्रिय, ज़िम्मेदार और चिंतनशील सदस्य के रूप में आगे बढ़ने में समर्थ हों। साथ ही साथ ग्रहण किए गए विचारों, संस्थाओं और परंपराओं के संबंध में प्रश्न कर सकें और उनकी जांच-पड़ताल कर सकें।

क्या परम्परा को संस्कृति माना जा सकता है?

यह भी एक समझने योग्य बात है कि कई बार हम परम्पराओं को संस्कृति मान बैठते हैं। जबकि संस्कृति कभी भी बुरी नहीं होती लेकिन परमपराएं अच्छी या बुरी होती हैं। सामाज वैज्ञानिक का काम उन्हीं पर सवाल उठाना है। परम्पराओं में से अच्छी-अच्छी बातें निकल-निकलकर कालांतर में संस्कृति बनती रहती हैं‌। 

यह संस्कृति मनुष्य के अन्तस में रची-बसी होती है। संस्कृति नष्ट नहीं होती, परम्पराएं बनती-बिगड़ती रहती हैं। संस्कृति में कुछ भी बुरा नहीं है लेकिन परम्परा में बुराई देखी जा सकती है। यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे आसपास मन्यता के नाम पर जो कुछ भी है, वह सब संस्कृति नहीं है। समाज विज्ञानियों की यह ज़िम्मेदारी भी है कि वे आम जन में इस वैज्ञानिक चेतना को भरें, वैज्ञानिक तरीकों से सोचना सिखाएं।

कैसे हो जागरुकता?

ग्रहण जैसी नितांत खगोलीय घटना को आम जन के बीच ले जाकर कुछ प्रयोगों के ज़रिये बताकर, स्कूलों में बच्चों के बीच बात करके इस तरह की वैज्ञानिक सोच को आगे बढ़ाया जा सकता है। वरना वायरस के आक्रमण के समय सरकारें थाली बजाने जैसी हरकतें करवाती रहेंगी और हम करते रहेंगे।

अंग्रेज़ी का एक शब्द है ‘Scientific Temperament’ जिसका अर्थ ही है सोचना, परिकल्पना बनाना, सवाल करना, अवलोकन करना, परीक्षण करना, विश्लेष्ण करना, तर्क करना, तथ्य गढ़ना और निष्कर्ष निकालना। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने अपनी “पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया” में ‘Scientific Temperament’ का भी ज़िक्र किया है।

मैं शुरू से भूगोल का स्टूडेंट रहा हूं लेकिन बचपन से लेकर कॉलेज तक बहुत कम ऐसे टीचर्स रहें जिन्होंने बाहर प्रकृति में जाकर भूगोल को समझने को कहा। जबकि बाद में यह समझ आया कि भूगोल सिर्फ कक्षा में बैठकर समझा जाने वाला विषय तो बिलकुल भी नहीं है। यह समझ जब बननी शुरू हुई तो चीज़ों को देखने के नज़रिए भी बदलते चले गए।

जो ग्रहण आज हुआ है उसकी पुनरावृत्ति तय है

यहां यह समझना भी ज़रूरी हो जाता है कि पृथ्वी और चन्द्रमा की गतियां नियत हैं। सूर्य के सापेक्ष उनका पथ भी नियत है। इसलिए जो ग्रहण आज हुआ है, कई साल बाद उसकी पुनरावृत्ति होगी।

पुराना लोक विश्वास सही नहीं है कि राहु नाम का कोई दैत्य जब सूर्य या चंद्रमा को ग्रस लेता है, तब ग्रहण होता है। इस वैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन आज से डेढ़ हज़ार साल पहले महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट्ट ने ही स्पष्ट कर दिया था।

ग्रहण से खौफ कैसा?

ग्रहण से कई लोग डरते हैं, उनका मानना है कि सूर्य और चन्द्रमा के ढक जाने से इंसान पर इसका भयानक असर पड़ेगा लेकिन वर्तमान वैज्ञानिक युग में ग्रहण के बारे में पर्याप्त जानकारी हमारे पास है। इसलिए इससे डरने और डरकर घर पर बैठकर जीवन में कभी-कभी मिलने वाले इस दुर्लभ अनुभव को हमें हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए। 

हमें तो कोशिश करनी चाहिए कि अपने चारों ओर इस बारे में जागरुकता लाएं और बच्चों को भी इसके वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में बताया जाए लेकिन आंखों की सुरक्षा व सावधानी के साथ। ताकि कई वर्षो में घटित होने वाली कुदरत की इस अनोखी घटना को देखने से हम वंछित भी ना रह जाएं।

कहीं ऐसा ना हो कि गलत मान्यताओं और परम्पराओं को संस्कृति मानकर हम आने वाली पीढ़ी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देना ही भूल जाएं। यदि हम जागरुक नहीं हुए तो वह पीढ़ी हमको उसी तरह बुरा-भला कहेगी जैसे हम विश्व युद्धों के कारणों को पैदा करने वाली पीढ़ी और विभाजन के दर्द को लाने वाले लोगों की पीढ़ी के विषय में सोचते हैं, क्योंकि आने वाली नस्लों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण ना देना भी मेरी नज़रों में एक बहुत बड़ा अपराध ही है।

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