एक ओर जहां राजनीति में महिला आरक्षण का मुद्दा 1974 से सिर्फ मुद्दा बनकर रह गया है। वहीं दूसरी ओर हाल ही में महिलाओं को मिला एक आरक्षण विवाद का विषय बन गया है। देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में इन दिनों नर्सिंग कर्मचारियों की भर्ती प्रक्रिया में महिलाओं को 80 प्रतिशत आरक्षण देने वाले सेंट्रल इंस्टीट्यूट बॉडी (सीआईबी) के निर्णय को लेकर घमासान मचा हुआ है।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में महिला नर्सों और पुरुष नर्सों की भर्ती में 80:20 का नियम लागू करने का फैसला किया गया है। जिसके बाद से नर्सिंग यूनियन ने विरोध का स्वर मुखर कर दिया और ट्वीटर पर #SaveMaleNurses ट्रेंड होने लगा।
मूल अधिकारों के हनन का आरोप
संविधान के अनुच्छेद 16 सभी को समान रूप से रोज़गार के अवसर की बात करता है। इस प्रकार सीआईबी का यह फैसला संविधान के नियमों की भी अनदेखी कर रहा है।
गौरतलब है कि देशभर के एम्स की कार्यप्रणाली को दुरुस्त रखने और गुणवत्ता बनाए रखने के लिए सीआईबी का गठन किया गया था। देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन सीआईबी के चेयरमैन हैं। सीआईबी की बैठक में एम्स के सभी वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल होते हैं।
मंशा पर खड़े हो रहे हैं सवाल
भले ही सीआईबी इस फैसले को महिलाओं के हित में बताए लेकिन इसके बावजूद नर्सिंग यूनियन का आरोप है कि इस फैसले के पीछे मंशा कुछ और है।
पुरूष नर्सों का कहना है कि अधिकारियों के लिए पुरूष नर्सों की तुलना में महिला नर्सों पर वर्चस्व दिखाना ज़्यादा आसान होता है। यही कारण है कि वो चाहते हैं कि महिलाएं अधिक हो, जिससे उनसे मनमानी तरीके से काम करवाया जा सके।
बैठक में शामिल ना करने का आरोप
नर्सिंग यूनियन ने सीआईबी की बैठक पर भी सवाल उठाया है। यूनियन के अनुसार, इस फैसले के लिए सीआईबी की बैठक में नर्सिंग यूनियन के पदाधिकारियों को शामिल नहीं किया गया। यह नियमों का उल्लंघन है। उन्हें अंधेरे में रखकर यह फैसला कैसे ले लिया गया?
नर्सिंग यूनियन ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि यदि इस निर्णय को लागू किया जाता है तो वे भारी विरोध के अन्य विकल्पों पर भी विचार करने को मज़बूर हो जाएंगे।