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आखिर महिलाएं ही क्यों करती हैं घर और समाज की चिंता?

आप सब महिलाओं द्वारा कोरोना माई की पूजा करने वाली खबर से अच्छी तरह से परिचित होंगे। जहां लोगों ने स्वयं ही कोरोना का लिंग निधार्रण कर लिया और उसे माई कहकर पूजने लगे मगर महिलाओं को ही कोरोना की पूजा करने और अंधविश्वास के दलदल में धसते हुए देखा जा रहा है।

कोरोना माई को धन्यवाद है! इन सबके बीच जब अनेकों मज़दूर वापस अपने घरों को लौट रहे थे, तब उनके घरों की महिलाएं अपने-अपने सगे-संबंधियों के लिए दुआएं मांग रही थीं मगर अभी महिलाएं कोरोना की पूजा कर रहीं हैं। 

इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं

मुझे ऐसा लगता है कि महिलाएं कोरोना को माई मानकर इसलिए पूजा कर रही हैं, क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा है कि कोरोना माई ने उनके सगे-संबंधियों को छोड़ दिया अर्थात् संक्रमित नहीं किया।

हालांकि यह बात पूरी तरह से बेतुकी है, क्योंकि कोरोना संक्रमण रोग प्रतिरोधक क्षमता मज़बूत होने पर प्रभावित नहीं करता है। असल बात तो यह है कि ग्रामीण महिलाओं को इस बात का अंदाज़ा नहीं है, इसलिए वे कोरोना को माई मानकर पूज रहीं हैं। 

ऐसे भी कोरोना की पूजा करने का मामला तब सामने आया है, जब सभी प्रवासी अपने-अपने घरों को लौट गए और कुछ अभी लौट रहे हैं।

अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पूजा 

इस बात से यह साफ पता चलता है कि महिलाओं ने समाज और घरों को बचाने के लिए ही कोरोना की पूजा की है, क्योंकि ग्रामीण महिलाएं अपने पति, भाई या घर के ही किसी पुरुष पर निर्भर होती हैं।

महिलाओं को अपने अस्तित्व की फिक्र होने लगती है कि अगर उनका घर नहीं बच पाएगा तो वे क्या करेंगी? जिसके बाद उन्हें चिंता सताने लग जाती है और वे पूजा-अर्चना करना शुरू कर देती हैं।

अधिकांश ग्रामीण महिलाओं की जिजीविषा घर के पुरुषों पर ही टिकी होती है, जिस कारण उन्हें पूजा-पाठ का सहारा लेना पड़ता है और वे सलामती की दुआ करने लगती हैं। 

पूजा-पाठ करना अंधविश्वास की निशानी है

महिलाएं अगर स्वयं आत्मनिर्भर होंगी तभी वे अपना भरण-पोषण स्वयं कर पाएंगी, जिससे वे अन्य किसी पर निर्भर नहीं रहेंगी। आज के समय में भी महिलाओं के लिए किसी परिस्थिति से निकलने के लिए एकमात्र ज़रिया पूजा-पाठ ही करना होता है मगर केवल पूजा-पाठ करना अंधविश्वास की निशानी है। 

कोरोना की पूजा करके उसके गुस्से को शांत करना या कोरोना के प्रकोप से स्वयं और परिवार वालों को बचाए रखने के लिए उसका धन्यवाद करना एक तरह का अंधविश्वास है, जिससे महिलाओं को बाहर निकलना ही होगा मगर यह इतनी आसानी से संभव होता हुआ नहीं दिखता है। 

प्राचीन ढांचा बदलेगा नहीं!

प्राचीन समय से यह ढांचा बंधा हुआ है कि महिलाएं सबकी सलामती के लिए दुआ-पूजा करेंगी। इसमें करवा चौथ से लेकर तीज त्यौहार तक शामिल हैं। अभी भी मंदिरों के खुलने के बाद सबसे ज़्यादा संख्या महिलाओं की ही रही है।

वहीं, कोई महिला अगर इस बात से इंकार करती है कि वह कोरोना या अन्य किसी तरह की पूजा नहीं करेंगी तो उसे समाज और अन्य महिलाएं ही प्रोत्साहित करतीं हैं कि इस पूजा से यह लाभ मिलेगा।

यह लोगों की आस्था से जुड़ा मुद्दा है मगर आस्था अगर अंधविश्वास की शक्ल ले लेगा तब वह एक जकड़न बन जाएगा। महिलाओं को इस जकड़न से बाहर निकलना होगा ताकि वे स्वयं के अस्तित्व को समझ सके कि उनका अस्तित्व उनके खुद के हाथों में है।

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