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आदिवासी समाज के बारे में वे बातें जो सबको जाननी चाहिए

भारत देश की पावन धरती, इसके हज़ारों रंगों से लेकर प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी ओर खींचती है। वैसे ही आदिवासी समाज की भाषा, संस्कृति, परम्परा और जनजीवन प्रकृति के बहुरंगी आयामों से भरा हुआ है। आदिवासी समाज सम्प्रदाय पूरक नहीं, बल्कि समुदाय पूरक समाज है।

आदिवासी जीवन दर्शन प्रकृति जल, आकाश, अग्नि, जंगल, पहाड़, नदी, मैदान, पशु, पंछी से प्रेरित है। आदिवासी समाज की यही विशिष्टता है कि वे प्रारम्भ से प्रकृति प्रेमी और प्रकृति के उपासक रहे हैं। प्रकृति ही उनकी दुनिया है इसलिए उनके पुरखा उनके देव रहे हैं।

आदिवासी समुदाय में किसी मनुष्य को देवता नहीं माना जाता है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आदिवासी समुदाय में किसी मनुष्य को देवता नहीं माना जाता है। इस समाज में कभी असंख्य देवता की कल्पना नहीं की गई। आदिवासी समुदाय कभी भी अन्य सम्प्रदायों की तरह अपने बड़े-बड़े धार्मिक स्थल बनाकर पुरोहितवादी प्रक्रिया द्वारा उपासना नहीं करते थे। वे धरती, जंगल, नदी-नाला, झरने आदि के निकट अपनी वेदी बनाकर प्रकृति का सम्मान करते रहे हैं।

भारत में 700 से भी अधिक आदिवासी समुदाय पाए जाते हैं। भाषा और क्षेत्र में विभिन्नता होने के बावजूद उनके गीत, संगीत, नृत्य, परम्परा और रूढ़िगत सामाजिक व्यवस्था में समानता पाई जाती है।

गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों के आदिवासी समुदाय की विभिन्न संस्कृतियों की समानता ही आदिवासी समुदाय को भारत का एक विशिष्ट समाज बनाता है।

आदिवासी समाज का प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक दृष्टिकोण से समान है। स्त्री-पुरुष का विभेद नहीं है और ना जात-पात ऊंच-नीच का कोई सामाजिक औचित्य है। वर्ण आधारित सामाजिक व्यवस्था और मानव निर्मित स्वधर्म के अस्तित्व की कोई मान्यता आदिवासी समाज में नहीं है।

आदिवासी समाज में दहेज प्रथा, ऑनर किलिंग, पैदा होने से पूर्व कन्या भ्रूण हत्या और विधवा विवाह की स्वतंत्रता का विरोध जैसी सामाजिक कुप्रथा का कोई स्थान नहीं है।

आदिवासी समाज में विवाह विछेद यदा-कदा सुनने को मिले

आदिवासी समाज में कन्या का जन्म होना कोई बोझ नहीं समझा जाता है। आदिवासी समाज में युवाओं को जीवन साथी चुनने की पूरी आज़ादी होती है। जो आज के गैर-आदिवासी आधुनिक समाज में कहीं नहीं दिखता।

विवाह और तलाक से सम्बंधित कठोर सामाजिक व्यवस्था जिससे पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक हानि होती है। इसका आदिवासी समाज में कोई औचित्य ही नहीं है। 

किसी भी राज्य की ज़िला अदालत में आदिवासी समाज के किसी व्यक्ति का विवाह विछेद (डाइवोर्स) जैसे यदा-कदा सुनने या देखने को मिलेंगे।

इसलिए आदिवासी समाज में “घोटुल” और “धुमकुड़िया” जैसी आदिवासी सामाजिक संस्था बनाए गए ताकि बुज़ुर्ग अपनी आदिवासी विरासत को नई पीढ़ियों को सौंप सकें।

यौन सम्बन्ध पाप नहीं!

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आदिवासी समाज में यौन सम्बन्धों को पाप नहीं समझा जाता है लेकिन गैर-आदिवासी समाज में आदिवासी समाज के प्रति कई गलत धारणाएं बनी हुई हैं। उनकी समझ में किसी आदिवासी अंचल के हाट बाज़ार में किसी युवा द्वारा किसी आदिवासी युवती को पान या मिठाई खिलाने के पीछे की मनसा सिर्फ यौन इच्छा से प्रेरित मानते हैं।

यही कारण है कि आदिवासी जतरा या मेला हाट बाज़ार में गैर-आदिवासी युवक इस फिराक में जाते हैं कि किसी आदिवासी युवती को कुछ खिलाने या पिलाने से उसकी यौन अभिलाषा पूरी हो जाएगी। सोचिए यह कितनी घटिया सोच है।

आदिवासी प्रथा है कि किसी भी युवक या युवती को अपने जीवन साथी के चयन की आज़ादी होती है। जिसके तहत एक दूसरे को फूल देना, मिठाईयां, पान आदि खिलाने की प्रथा है। यह प्रथा एक-दूसरे के प्रेम की स्वीकृति के लिए होती है।

लिव-इन रिलेशनशिप पर बात

कई बार गैर-आदिवासी द्वारा लिखे लेख पढ़ने को मिलते हैं जिसमें इस प्रकार की प्रथाओं को गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। यह भी गैर-आदिवासियों की गलत धारणाओं की ओर इंगित करता है।

ऐसी विकृत सभ्य शहरी सभ्तया के लिए एक प्रश्न है कि लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा आपने कहां से ग्रहण की? उसके पीछे की अवधारणा को कोई सभ्य समाज समझा सकता है क्या?

दरअसल, आदिवासी समुदाय में धन की समस्या होने के कारण विधिवत तरीके से या धूमधाम से विवाह ना करने या युवती की इच्छा से अपने मनपसंद जीवन साथी के साथ जीवनभर लिव-इन रिलेशन में रहते हुए अगर संतान पैदा होती है, तो उनकी संतान को पिता की पैतृक सम्पत्ति में अधिकार मिलता है। समाज में ऐसे विवाह को भी सामाजिक मान्यता और सम्मान प्राप्त होता है।

गैर-आदिवासी समाज में कन्या का पैदा होना बोझ समझा जाता है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

गैर-आदिवासी समाज में एक पिता के घर कन्या का पैदा होना एक बोझ समझा जाता है। कन्या के पैदा होते ही सबसे पहले जो चिंता होती है, वो यह कि बेटी के लिए दहेज का इंतज़ाम करना होगा। इसी वजह से गैर-आदिवासी समाज में बेटियों के साथ भेदभाव की समस्या पैदा हुई है।

इसी भेदभाव को खत्म करने के लिए “बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ” जैसी योजनाओं की शुरुआत की गई।  गैर-आदिवासी समाज में बेटी से सम्बंधित समस्या इतनी गहरी है कि उन्हें यदि पहले से पता चल जाता है कि गर्भ में बेटी पल रही है, तो उसे गर्भ में ही समाप्त करने की चेष्टा की जाती है।

कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक अपराध है। इसकी बानगी यह है कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में लिंगानुपात सबसे कम है, जिसके कारण पुत्र वधु की समस्या अब आम बात हो गई है।

इसी कारण दूसरे राज्यों से पुत्र वधु लाने की एक परम्परा शुरू हुई है। लिंगानुपात की समस्याओं को देखते हुए महत्मा गाँधी की 138वीं जयंती पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को “बालिका बचाओ योजना” की शुरुआत करनी पड़ी।  गुजरात में “डीकरी बचाओ अभियान” चलाया जा रहा है। इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी योजनाएं चलाई जा रही हैं।

हड़िया के चलन पर सवाल

आदिवासी समाज में हड़िया (चावल से बना तेज पेय पदार्थ) और महुआ से बनी शराब को आदिवासियों के सामाजिक पतन के लिए ज़िम्मेदार मान लिया जाता है‌। मेरा सोचना है कि अगर भोजन भी आवश्यकता से अधिक खाया जाए तो वह स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है। इसका किसी परम्परा से क्या लेना-देना देना?

अगर हड़िया या महुआ से बना पेय पदार्थ द्वारा आदिवासी समाज का अहित होता है, फिर तो सभ्य शहरी सभ्यता का नाश ही हो जाना चाहिए था, क्योंकि वहां किसी ना किसी कोने में शराब के ठेके मिलेंगे और रात में बड़े-बड़े पब में सभ्य शिक्षित लोग शराब और बियर का आनंद लेते दिख जाएंगे। उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है, बल्कि ऐसे पब को सरकारी लाइसेंस दिया जाता है।

आदिवासी दर्शन, परम्पराओं, रूढ़ियों और प्रथाओं के प्रति गैर-आदिवसियों के मन में बैठी गलत अवधारणाओं से मुक्त होकर आज तथाकथित भारतीय समाज को आदिवसियों की जीवन शैली एवं उनकी परंपराओं को समझने की ज़रूरत है।

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