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कॉलेज सीनियर ने कहा, “तुम इतनी काली हो, ज़रूर चमार होगी”

caste based discrimination

caste based discrimination

जॉर्ज फ्लायड की मृत्यु जिन परिस्थियों में हुई, वह इंसानी दुनिया के मर्म में इंसान के खो जाने की परिभाषा को दर्शाता है। उस घटना ने यह फिर से बताया कि हमारा समाज तरह-तरह की असमानताओं से घिरा हुआ है।

इस घटना ने विश्व में नस्लीय भेदभाव के प्रश्न को एक बार और प्रभावी कर दिया है जिसमें भी हम कई तरह के अलग-अलग परतों में उत्पीड़न देख पा रहे हैं। जैसे- ब्लैक ट्रांसजेंडर और ब्लैक महिलाओं के साथ उत्पीड़न के अलग-अलग हालात।

समाज की हिप्पोक्रेसी

इस घटना ने भारत में भी भेदभाव की एक नई बहस शुरू हुई है जिसमें कई परतों में समाज की हिप्पोक्रेसी हमारे सामने खुलकर आती है। चाहे वह बॉलीवुड सितारों का एकतरफा विरोध हो या भारतीय जनमानसिकता में बसे गोरे रंग के लिए उन्माद।

कोरोना महामारी के समय भी यह देखने को मिला जब अपने देश में, नॉर्थ ईस्ट के लोगों पर लगातार नस्लीय हिंसा हो रही थी। कहीं ना कहीं इस बात पर हर तरफ से एक व्यापक चुप्पी थी। इसी सन्दर्भ में मैं आज अपने साथ हुई एक घटना का ज़िक्र करना चाहती हूं।

मेरा कॉलेज मुझे सेफ स्पेस दे रहा था

मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ग्रैजुएशन प्रथम वर्ष की छात्रा हूं। बात आज से पांच महीने पहले की है, जब यूनिवर्सिटी के साथ घुल मिलकर मैंने एक सेफ स्पेस बना लिया था। वहां एक समूह था जो यूनिवर्सिटी में अपने जनवादी क्रियाकलापों के लिए जाना जाता है। इस समूह में काम करते हुए मुझे कुछ दिन गुज़रे थे।

मैं बहुत खुश भी थी क्योंकि यहां प्रेम, सम्मान, दोस्ती, सहयोग और काम के लिए जगह के साथ-साथ मेरे जैसी सोच के भी लोग थे, जिनसे आप घंटों समाज और देश में होने वाले क्रियाकलापों पर सार्थक बहस कर सकते हैं।

ऐसे समूह का हिस्सा होना मुझे बेहद खुश और सेफ महसूस करा रहा था। यह मेरे लिए एक सेफ स्पेस था जहां मैं बिना बहुत सारे फिल्टर के अपनी बात रख सकती थी।

मेरी अवधारणा को चोट

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

एक दिन मेरी अवधारणा को चोट लगी। मैं किसी काम के पूरे होने के बाद वापस जाने की तैयारी कर रही थी। तभी पीछे से एक आवाज़ आई, “हैलो राशि।” वो मेरे सीनियर थे। मैंने उनके हैलो का जवाब हैलो से ही दिया।

इसके बाद जो सवाल आया बेशक मैं उसके लिए तैयार नहीं थी। उन्होंने शायद बिना कुछ भी सोचे-समझे मुझसे पूछा, “तुम चमार हो क्या?” कुछ सेकेंड के लिए मुझे यह समझने में ही दिक्कत हुई कि यह प्रश्न आया कहां से?

ऐसे सवाल का सामना मैंने कभी नहीं किया था। ऐसा एकदम नहीं था कि मैं जाति की डायनेमिक से परिचित नहीं थी। मैं जिस यूनिवर्सिटी का हिस्सा हूं, वहां लोग एक-दूसरे का उपनाम पूछना कभी नही भूलते हैं, जो बेहद सामान्य है।

यहां तक कि वे आपका गोत्र भी पूछ लेंगे मगर मैंने सच में इस सवाल का सामना कभी नहीं किया था। मैं बहुत संवेदनशील भी नहीं थी कि इन बातों को समझ सकूं, क्योंकि मैं सवर्ण हूं तो यह प्रश्न मेरे हिस्से नहीं था, ना मेरा भोगा हुआ यथार्थ।

जिस जगह, जिन लगों द्वारा मुझसे यह सवाल किया गया था, उसको मैं संवेदनशील मानती थी। मैंने उनसे पूछा कि “उनको ऐसा क्यों लगा?” उन्होंने कहा, “उस दिन तुमने इंट्रो में अपना पूरा नाम नहीं बताया था।”

मैंने कहा, “तो यह कोई वजह नहीं हैं मुझसे मेरी जाति पूछे जाने की।” उनका जो जवाब आया मुझे उसके बाद समझ ही नहीं आया कि क्या कहा जाना चाहिए? उन्होंने जवाब दिया, “तुम्हारा रंग इतना काला है कि मुझे लगा तुम ज़रूर किसी नीची जाति से हो।”

मुझे बहुत ज़्यादा गुस्सा आया। इतना कि मैंने कहा, “अच्छा हुआ आपने यह सवाल मुझसे किया। अगर किसी दलित से किया होता तो आप जेल तक जा सकते थे। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मैं ब्राम्हण हूं जाति से। मुझे इसमें कोई गर्व या अपमान नहीं महसूस होता है। मेरा रंग और मेरा जन्म दोनों मैंने नहीं चुना हैं मगर आप संवेदनशील होना चुन सकते हैं।”

हमारे भीतर रंग और जाति को लेकर गहरी परतें

ऐसे में मुझे पहली बार एहसास हुआ कि हमारे भीतर रंग और जाति को लेकर कितनी गहरी परतें बैठी हुई हैं। यह कितना अमानवीय है, इस बात पर मुझे गुस्सा ज़रूर आया मगर वह घटना यह भी बताती है कि एक व्यक्ति अपने परिवेश में क्या क्या सीखता है।

कम-से-कम जब आप एक यूनिवर्सिटी आएं तो उसके भीतर तो आप अपने व्यवहार को अनलर्न करना सीखें लेकिन ऐसा होता कहां है? सोचने की बात यह है कि उन्होंने एक बार भी यह नहीं सोचा होगा कि मेरे काले रंग और मेरे शरीर पर किए जाने वाले कमेन्ट मुझे कितनी तकलीफ दे सकते हैं।

यह सबके लिए आसान नहीं है। खासकर, उनके लिए तो बिलकुल भी नहीं जो इस सच के साथ ही बड़े होते हैं और इसके साथ जीते हैं। जॉर्ज फ्लायड के साथ जो भी हुआ वह बेहद अमानवीय है। ऐसा व्यवहार हम हमारे आसपास के लोगों के साथ भी करते रहते हैं।

जब घर में आग लगी हो तो हम कैसे दुनिया को बदलने में अपना योगदान देंगे? इसलिए सबसे पहले खुद में ही झांकने की ज़रूरत है कि हमने अपने लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया हुआ है। जो शायद आपके सहपाठी और दोस्त भी हो सकते हैं।

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