सुशांत सिंह के जाने के बाद शेखर कपूर और मनोज बाजपेयी की इंस्टाग्राम पर बातचीत हुई। बातचीत के दौरान शेखर कपूर कहते हैं, “मुझे ऐसा लगता है कि पिछले 6 महीने में मैंने सुशांत से बात क्यों नहीं की? उसे फोन ही कर बात कर लेता। ‘पानी’ नहीं बना पाया कोई और मूवी बना लेता।”
पूरी बातचीत सुनकर लगा कि शेखर कपूर और सुशांत के बीच बड़ा आत्मीय संबंध था। मैं सुशांत सिंह की एक दर्शक हूं और उसी आबो हवा से आती हूं, जहां से सुशांत आते हैं। मेरे मन में एक अजीब सी टीस है।
इसी Youth Ki Awaaz हिन्दी प्लेटफॉर्म पर मैंने कंगना रनौत के विषय में उस वक्त लिखा था, जब आइफा अवॉर्ड में करण जौहर और वरुण धवन ने मिलकर कंगना को बुलीइंग किया।
मेरा हृदय कचोटता है यह सोचकर कि मैंने सुशांत के लिए क्यों नहीं लिखा? मैं खुद से सवाल कर रही हूं और खुद ही जवाब भी दे रही हूं। जो उसके जाने के बाद लिख रही हूं, वह पहले क्यों नहीं लिखा? मेरे मन में यह सवाल भी आता है कि मेरे लिखने से क्या होगा? मैं हूं कौन? क्या मेरे लिखने से फर्क पड़ता?
मुझे नहीं मालुम कि जो हुआ वह होता या नहीं लेकिन सार्वजनिक जीवन में काम कर रहे तथाकथित आउट साइडर्स की ताकत, उनका सबसे बड़ा सपोर्ट सिस्टम उनकी जनता यानी कि दर्शक है। बॉलीवुड के किसी घराने या लॉबी को प्रमोशन या पी.आर. भले ना मिला हो लेकिन हमारा साथ क्यों नहीं मिला?
हम लोगों ने सिटिज़न जर्नलिज़्म क्यों नहीं किया?
कभी किसी टीवी शो, अवॉर्ड शो के दौरान, सोशल साइट्स या मीडिया के ज़रिये जब-जब सुशांत सिंह को सुनियोजित तरीके से बॉलीवुड के हेजमानिक (Hegemonic) ने टारगेट किया, तो हम भारतीयों ने सिटिज़न जर्नलिज्म क्यों नहीं किया?
सुशांत हमारे बीच का था, हममें से एक था। उसके लिए हमें बोलना था, हमें लिखना था। जो उसके जाने के बाद लिखा जा रहा है, वह पहले क्यों नहीं लिखा गया?
अगर हम भारतीय अपने-अपने हिस्से की पत्रकारिता करना शुरू कर दें, हम सवाल पूछना शुरू कर दें, फिल्मों का चुनाव कंटेंट देखकर शुरू कर दें तो फर्क पड़ेगा। अगर आम जन सवाल करना शुरू कर दें, तो किसी की भी “सांस्कृतिक आधिपत्य” को चुनौती दिया जा सकता है।
हम किसी को जीते जी यह एहसास क्यों नहीं दिलाते कि तुम उपर वाले का एक बेहतरीन तोहफा हो। तुम स्पेशल हो, जब तुम सफल होते हो कितने लोग अपने सपनों को पूरा होता हुआ महसूस करते हैं। हमें तुम्हारी ज़रूरत है, हम तुम्हारे साथ हैं।
मैं अपने हिस्से की कोशिश से चूक गई!
सुशांत के जाने के बाद हम सब के लिए कुछ सवाल हैं। जैसे किसी की बुलीइंग को इन्जॉय कर हमें किसी के शो की टीआरपी बढ़ानी है? या ऐसी हरकतों को कहीं भी कभी देखकर अपने हिस्से की पत्रकारिता करनी है?
हम फिल्मों का चुनाव कैसे करें, ब्रांड, बजट, लोकेशन देखकर या विषय वस्तु देखकर? यह कब तक चलेगा, “जानते हो मेरा बाप कौन है?”, “मेरे पीछे किसका हाथ है?” हम व्यक्ति को उसके विचार से आंकें या उसके बाहरी ताम-झाम और चापलूसी से?