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समलैंगिकता को स्वीकार क्यों नहीं कर पा रहा है भारतीय समाज?

LGBTQ+ Community

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शेक्सपियर की एक मशहूर कहावत है, “नाम में क्या रखा है, गर गुलाब को हम किसी और नाम से भी पुकारें तो वो वैसी ही खूबसूरत महक देगा।”

यह बात यही दर्शाती है कि नाम से कुछ नहीं होता है चाहे वह मर्द हो या औरत, बात है तो सिर्फ और सिर्फ इंसान और इंसानियत की। समलैंगिक लोगों के अंदर क्या जान नहीं बसती? या वे लोग सांसे नहीं लेते? या फिर उनकी भावनाएं नहीं होती? समाज के बड़े-बड़े नामी और सफल लोगों का एक बड़ा तबका ऐसे लोगों को अभिशाप मानता है, पाप मानता है।

चलिए एक उदाहरण लेते हैं, दुर्भाग्यवश यदि आपका बच्चा अपाहिज होता है तो क्या आप उसको अपने घर और समाज से निकाल फेंकने की सोचते हैं? कभी नहीं, आप अपने मानसिक विक्षप्त बच्चे को भी सीने से लगा कर रखते हैं, मगर यहां बात जब समलैंगिक होने की आती है तो सबकी नज़रें झुक क्यों जाती हैं?

प्रतीकात्मक तस्वीर

समलैंगिक समाज पूछ रहा है अपने सवाल

एक दिन पूरा समलैंगिक समाज इस सवाल का जवाब मांगेगा कि आखिर यह समाज उनके साथ ऐसा भेदभाव क्यों करता है? कई बार देखने में आया है कि समलैंगिक बच्चा या बच्ची, अगर लड़के साड़ी या फ्रॉक पहन लेते हैं या लड़कियां जब पुरुषों की तरह व्यवहार करती हैं तो उनको घर से बाहर तक निकाल दिया जाता है।

यह कहां का न्याय है? लोग कहते हैं यह पाप है, यह आप कैसे कह सकते हैं? इसके अलावा जो आप कर रहे हैं वो क्या पुण्य का काम है? कभीं नहीं, ईश्वर कभी इस बात को नहीं मान्य करेगा कि समाज में किसी के साथ इस तरह का भेदभाव किया जाए।

भारतीय समाज बड़े पैमाने पर समलैंगिकता को अस्वीकार करता आ रहा है। बेशक हमारे देश में इसे कानूनी मान्यता मिल गई हो, मगर क्या इसका प्रभाव हमारे समाज के रूढ़िवादी लोगों पर पड़ा है? मेरे व्यक्तिगत विचार में तो, “नहीं।”

हमारे इस व्यवहार से समलैंगिंक लोगों को कितना कुछ अनायास ही सहना पड़ता है। वे समाज में हर रोज़ ताने सुनते और झेलते हैं। ऐसे में बहुत कम लोग हैं जो उन्हें हौसला देते हैं।

सामाजिक और मानसिक प्रताड़ना झेलने को मज़बूर है समलैंगिक लोग

समलैंगिक लोगों को समाज ऐसा मानता है जैसे वह जानवरों से भी बदतर हों। उनके साथ इतना घृणित व्यवहार होता है जिसका आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हैं। लोग उनको तरह-तरह के नामों से पुकारते हैं, समाज उनकी प्रतिभा की तरफ अपना ध्यान ही नहीं डालता है।

इसके बजाय अगर कोई विषमलिंगी इंसान है जो कोई अपराधी ही क्यों ना हो उसको लोग अहमियत भी देंगे, मगर एक समलैंगिक जो वास्तव में लायक हो और मेहनती भी हो ज़्यादातर लोग उसको नीची और गिरी हुई नज़रों से ही देखेते हैं।

जिसके साथ इस तरह व्यवहार किया जाता हो, उसका मानसिक विकास कैसे हो सकता है? मेरा उस वर्ग के लोगों से सवाल है जो इन्हें प्रताड़ित करते हैं, क्या आप सोच भी पाते हैं कि यह भेदभाव और प्रताड़ना उस इंसान और उसकी मानसिक स्तिथि को कितना नुकसान पहुंचाती है?

आखिर समाज खुलकर इन लोगों के लिए आवाज़ बुलंद क्यों नहीं करता है? देखा गया है कि समलैंगिक लोगों की मृत्यु दर सबसे अधिक सिर्फ और सिर्फ आत्महत्या से ही बढ़ती है। वहीं कुछ सर्वे कहते हैं कि कई मामलों में इनकी हत्या तक कर दी जाती है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का हो जाते हैं शिकार

NCBI की रिपोर्ट के अनुसार ज़्यादातर समलैंगिक पुरुषों की एड्स के द्वारा मृत्यु हो जाती है या फिर वे इससे पीड़ित हैं। कुल 9 प्रतिशत से लेकर 27 प्रतिशत तक समलैंगिक पुरूष एचआईवी पॉजिटिव हैं। आप लोग जानते हैं ऐसा क्यों है? समाज अगर उनको समानता की नज़रों से देखता और प्रताड़ित नहीं करता तो यह आंकड़े बहुत कम होते, क्योंकि ये खुलकर सामने आ पाते और अपना इलाज करा पाते।

इनकी इस दशा के ज़िम्मेदार हम सब हैं। ये लोग मज़बूरन ऐसे लोगों से दोस्ती कर लेते हैं जो इनकी ज़रूरत के हिसाब से ठीक नहीं होता है। उनके साथ प्रेम सम्बंध का नाटक कर, शारीरिक संबंधों को प्राथमिकता देने लगते हैं।

ऐसे में, उनके पास कोई विकल्प ही नहीं बचता और वे कई लोगों के संपर्क में आकर ऐसे संबंधों को आदान-प्रदान कर देते हैं। जिससे उन्हें एड्स जैसी बीमारियों का सामना का सामना करना पड़ता है।

कार्यस्थलों पर होता है भेदभाव

फिलहाल, LGBTQA+ श्रमिकों को रोज़गार के भेदभाव से बचाने के लिए कोई संघीय कानून नहीं हैं। समलैंगिक और उभयलिंगी व्यक्तियों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों ने सहकर्मियों द्वारा कार्यस्थल पर उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और भेदभाव का अनुभव किया है।

ये मुद्दे ना केवल लोगों के कार्यस्थल में LGBTQA व्यक्तियों के लिए परेशानी वाले हैं, बल्कि वे व्यवसायों के लिए भी ठीक नहीं हैं। मैं इस लेख द्वारा LGBTQ कर्मचारियों के लिए एक सकारात्मक कार्यस्थल वातावरण को काम पर रखने और बढ़ावा देने के मूल्य को रेखांकित करना चाहता हूं।

ऐसी ही ना जाने कितनी समस्याओं से यह कम्युनिटी सदियों से भेदभाव झेलती चली आ रही है। ज़्यादातर परिवार इस बात का समर्थन नहीं करते हैं। कुछ हैं, जो समझ सकते हैं कि उनके बच्चे को कोई बीमारी नहीं है बल्कि रोमांस और प्यार की प्राथमिकता समलिंगी लोगों से हैं।

LGBTQ कम्युनिक का प्राइड मार्च: प्रतीकत्मक तस्वीर

एक उदाहरण से इस सामाजिक मुद्दे को समझ सकते हैं

“मीनू यह मैं क्या देखती रहती हूं फेसबुक पर, अवनी किसी लड़की के साथ चिपक-चिपक कर फोटो डालती है, कितना असभ्य लगता है? इसकी शादी में ज़रूर अड़चन आएगी, देख लियो मीनू”

“अरे! आरती भाभी दोस्त हैं दोनों, प्यार करती हैं आपस में?”

“क्या? तू पागल हो गई है क्या? ये अनाप-शनाप बक रही है, लड़कियां आपस में प्यार कर रही हैं।”

“आरती भाभी, ‘प्रेम ही तो है’ करने दीजिए, हम उसके जीवन के फैसले नहीं ले सकते, कानून भी यही कहता है सबको अधिकार है, अपने तरीके से जीवन जीने, साथी चुनने और प्यार करने का। भाभी मैं जीने देना चाहती हूं अवनी को। इसमें कोई बुराई नहीं है, घर आएंगी तब समझाऊंगी आपको।”

आरती भाभी का फोन बिना बात किए ही काट दिया जाता है।

बस याद रखिए, सबको अपने-अपने अधिकार प्राप्त हैं। समलैंगिकता कोई पाप नहीं है। यह एक एहसास है और इसके विपरीत किसी को नहीं बोलना चाहिए। बच्चों को समझें। समाज में आरती भाभी तो सैकड़ों मिल जाएंगी, मगर मीनू शायद ही कहीं हो।


आंकड़ों का स्त्रोत – NCBI

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