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अमेरिका की पुलिस अश्वेतों को क्रिमिनल मानकर क्यों चलती है?

George Floyd

George Floyd

जॉर्ज फ्लाॉयड की हत्या के बाद अमेरिका में हो रहे प्रदर्शनों के परिपेक्ष्य में यह पूछना तर्कसंगत होगा कि क्या अब थोड़ी सी भी पुलिस की संस्थागत विश्वसनीयता बची है?

भारत के परिपेक्ष्य में भी यह सवाल उतना ही तर्कसंगत है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि दिल्ली दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। दिल्ली पुलिस अल्पसंख्यकों को बचाने के बजाय एक खास विचारधारा के लोगों के साथ मिलकर उन पर पर हमले कर रही थी। 

हमारे यहां पुलिस का रवैया दमनकारी है

दिल्ली पुलिस दंगों के असली दोषियों को पकड़ने के बजाय एक्टिविस्ट्स को गिरफ्तार कर रही है जिनमें अधिकतर मुस्लिस हैं। एंटी सीएए प्रदर्शनों के दौरान भी दिल्ली और यूपी पुलिस का रवैया दमनकारी था।

दर्जनों मुस्लिम अल्पसंख्यक पुलिस के हाथों मारे ग‌ए। सिर्फ अल्पसंख्यक ही नहीं, बल्कि दशकों से दलितों और महिलाओं पर भी पुलिसिया दमन की हज़ारों कहानियां दर्ज़ होती आई हैं। 

क्या वास्तव में पुलिस जैसी संस्था की ज़रूरत है?

जब हमने पुलिस की विश्वसनीयता पर चर्चा की है तो हमें इस संस्था की उपयोगिता पर भी चर्चा करनी चाहिए। क्या सचमुच हमारे समाज को इस संस्था की उतनी ज़रूरत है जितनी कि हम समझते हैं?

अगर हमारी ज़रूरत के लिए पुलिस की मौजूदगी है फिर लोगों का टकराव अधिकतर पुलिस से ही क्यों होता है?

इसका कारण यह है कि पुलिस राज्य का एक अभिन्न अंग है। जब भी हम अपने राज्य से सवाल करते हैं तो पुलिस हमारे सामने खड़ी हो जाती है। 

अमेरिका में पुलिस अगर अश्वेतों को क्रिमिनल मानकर चलती है, तो वह सिर्फ इसलिए क्योंकि अमेरिकी राज्य भी अश्वेतों को क्रिमिनल मानकर चलता है। भारत में भी अगर पुलिस दलितों और मुसलमानों के साथ हिंसा करती है तो इसका कारण है कि राज्य भी इस हिंसा को जायज़ मानता है।

पुलिस की भूमिका हमेशा राज्य और सरकार को बचाने की और जनता के बीच से उनके विरोध में उठने वाली आवाज़ों को कुचलने की होती है। ऐसे‌ में सवाल‌ उठता है कि फिर क्यों ना पुलिस जैसी संस्था को खत्म करने के बारे में सोचा जाए?

क्या बगैर पुलिस हमारा समाज सहज रह सकता है?

क्या पुलिस के बिना हमारा समाज रह सकता है? क्योंकि क्राइम तो समाज का एक हिस्सा है फिर इसका जवाब यह है कि आज भी अधिकतर मामलों में पुलिस का काम क्राइम होने के बाद शुरू होता है। पुलिस के कामों में किसी क्राइम की तहकीकात करना, अभियोग पक्ष के लिए सबूत जुटाना और न्यायिक प्रक्रिया में मदद पहुंचाना शामिल होता है ना कि क्राइम को रोकना। 

तो क्या इस काम को पुलिस के अलावा कोई ऐसी दूसरी संस्था अंजाम नहीं दे सकती जो न्यायपालिका के अधीन हो? 

ऐसी संस्था बिल्कुल हो सकती है, बल्कि ऐसी संस्था और ज़्यादा उपयोगी होगी क्योंकि वह संस्था ऑटोनोमस होगी। इससे न्यायिक प्रक्रिया और सरल हो जाएगी और लोगों को न्याय मिलना कुछ हद तक आसान हो जाएगा। 

ऐसे में प्रश्न उठता है कि विरोध प्रदर्शनों और दंगों के वक्त क्या होगा? क्योंकि उन्हें भी काबू करना तो पुलिस का ही काम है। यही तो सवाल है कि पुलिस का काम क्या सिर्फ प्रदर्शनों और दंगों से निपटना है? तो सवाल यह भी उठेगा कि दंगों के समय क्या समाजिक संस्थाएं और सरकार सक्रिय होकर उन्हें रोकने का प्रयास नहीं कर सकती हैं? 

अब यह भी किसी से छिपी नहीं है कि अक्सर दंगों में पुलिस या तो शामिल होती है या फिर दूर खड़ी होकर तमाशा देखती है। हम तब दंगों से ज़्यादा बेहतर तरीके से निपट पाएंगे जब ऐसी समाजिक संस्थाएं जिनमें हर तबके की भागीदारी है, अपना रोल निभाएंगी। 

बात विरोध प्रदर्शनों की 

विरोध प्रदर्शनों पर इसलिए सरकार ध्यान नहीं देती क्योंकि पुलिस उसके लिए एक सस्ता औज़ार है जिसके सहारे वह विरोध प्रदर्शनों को कुचलती है। अगर पुलिस की संस्था को समाप्त कर दिया जाएगा तो सरकारें विरोध प्रदर्शनों की अहमियत समझेंगी। विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिए सरकारें नेगोसिएशन का रास्ता चुनेंगी ना कि हिंसा का। 

बहरहाल, अगर हम बिना पक्षपात किए देखें तो हमारे पास पुलिस का भी विकल्प मौजूद है। आज नहीं तो कल हमें पुलिस जैसी संस्था को खत्म करने के बारे में सोचना ही होगा, क्योंकि पुलिस की मौजूदगी में ही हिंसा निहित है। 

पुलिस रिफाॅर्म की मांग अब अप्रासंगिक हो चुकी है, क्योंकि यह रिफाॅर्म सिर्फ पुलिस को प्रोफेशनल बना सकती है लेकिन उस पुलिसिया हिंसा को खत्म नहीं कर सकती जिनसे हमें अपने लोगों को बचाना है।

इसका उदाहरण खुद अमेरिका की पुलिस है जिसके वर्कफोर्स में एक चौथाई अश्वेत हैं, जो कि उनकी जनसंख्या के अनुपात से दोगुना हैं फिर भी अश्वेतों के साथ पुलिस का बर्ताव आज भी हिंसात्मक है। ऐसे में यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बीच पुलिस रिफॉर्म की बातें बेमानी लगती है।

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