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लॉकडाउन के दौरान 74 प्रतिशत मज़दूर हो गए हैं बेरोज़गार : सर्वे IMPRI

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लॉकडाउन में परेशान मज़दूर

गरिमा के साथ नई राजकोषीय गतिविधियों में बेरोज़गार प्रवासी श्रमिकों की प्रकृति शहरों की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए सरकार की नीतियों के प्रकार पर निर्भर करेगी।

वैश्विक रुझानों की माने तो कोविड-19 का भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज पर बहुआयामी प्रभाव पड़ा है। राष्ट्रव्यापी तालाबंदी के कारण गरीब वर्गों के जीवन और आजीविका पर बढ़ती चिंताओं के बीच, सरकार ने कई बड़े आर्थिक पैकेजों की घोषणा की।

हालांकि कुछ अपवादों के साथ ज़मीनी स्तर पर आधिकारिक क्षेत्र में समन्वय की कमी के परिणाम भयावह रहे। इनमें विशेष रूप से लाखों “शहर निर्माता” यानी शहरी अनौपचारिक कार्यकर्ता शामिल रहें, जो कार्यबल के एक महत्वपूर्ण हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं और अर्थव्यवस्था में कई तरीके से योगदान देते हैं।

इनमें से ज़्यादातर असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं और शहरों में अनौपचारिक बस्तियों में रहते हैं। उन्होंने तालाबंदी का सबसे ज़्यादा खामियाजा भुगता है। उनके पास किसी नौकरी का अनुबंध नहीं है, कोई नियमित काम नहीं है और किसी भी सामाजिक सुरक्षा के बिना उन्हें और उनके परिवारों को निर्वासन के दौरान अक्सर सरकारों की लापरवाही का सामना करना पड़ता है।

इसके अलावा उनके आजीविका के अवसरों में कई अवरोधों से बाधा उत्पन्न होती है जिसमें आवास की स्थिति, शहरी सेवाओं की अपर्याप्तता, जाति और लिंग से संबंधित सामाजिक-आर्थिक असमानताएं, सरकारों की नीतियां और व्यवहार शामिल हैं।

गरीब मज़दूर : प्रतीकात्मक तस्वीर

लॉकडाउन के दौरान चुनौतियां

प्रवासी श्रमिकों के जीवन पर लॉकडाउन के प्रभाव को समझने के लिए प्रभाव एवं नीति अनुसंधान संस्थान, IMPRI के एक सर्वेक्षण से पता चला कि भारत के 50 से अधिक शहरों के 3,121 लोगों में से लगभग तीन-चौथाई अनौपचारिक रोज़गार में लगे हुए थे। यानी ये लोग दैनिक मज़दूरी कार्य, क्षुद्र व्यापार-व्यवसाय और अस्थायी श्रमिकों के रूप में बिना किसी सामाजिक सुरक्षा और लाभ के काम कर रहे थे।

साथ ही यह भी पाया गया कि तालाबंदी के दौरान दस में से छह श्रमिकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा, जबकि बेरोज़गारी आकस्मिक मज़दूरों और स्वरोज़गार के प्रतिसाददाताओं में सबसे ज़्यादा थी। आकस्मिक मजदूरों में से 74 प्रतिशत ने अपनी नौकरी खो दी जबकि 67 प्रतिशत स्व-नियोजित श्रमिक लॉकडाउन के कारण अपनी आर्थिक गतिविधियों को आगे नहीं बढ़ा सके।

कामगार जिनके पास बिना किसी काम के अपने घरों के भीतर रहने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। वे ना तो वास्तविक रूप से सामाजिक भेद का अभ्यास कर सकते थे और ना ही वे इसे बर्दाश्त कर सकते थे। तालाबंदी के दौरान कमाने में असमर्थत 54 प्रतिशत लोगों को उनके आवास के लिए किराए का भुगतान करने में भी दिक्कत हुई।

लॉकडाउन में परेशान गरीब मज़दूर

रोज़गार जाने से बच्चों की शिक्षा पर भी पड़ा है प्रभाव

नौकरियों की हानि का बच्चों की शिक्षा पर भी प्रभाव पड़ा है, क्योंकि अधिकांश शहर निर्माता अपनी संतानों को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं। ऐसे में एकाएक ऑनलाइन शिक्षण विधियों के नए तौर-तरीके सीखने के लिए डिजिटल तरीकों पर निर्भरता में शिक्षा प्रवासी मजदूरों के बच्चों के लिए एक दूर का सपना बन गई है। क्योंकि उनके पास ऐसी शिक्षा तक पहुंचने के लिए कोई स्मार्टफोन नहीं है और कंप्यूटर के बारे में तो वो फिलहाल सोच भी नहीं सकते हैं।

शहर के 88% निर्माताओं के साथ घरेलू आय, बचत, रिश्तेदारों और दोस्तों की वित्तीय मदद और इसी तरह उनके स्वास्थ्य से संबंधित खर्चों को पूरा करने में इस अस्थायी नौकरी के नुकसान ने उनकी चिंताओं को बढ़ाया है। जिसमें किसी तरह का स्वास्थ्य आपातकाल और COVID -19 शामिल है।

ऑनलाइन क्लास में शामिल नहीं हो पा रहे हैं मज़दूरों के बच्चे

क्या चाहते हैं शहर निर्माता

इनमें से ज़्यादातर लोग वापस अपने काम पर लौटना चाहते हैं और लगभग तीन-चौथाई उत्तरदाताओं ने कहा कि यदि संभव हो तो वे उसी नौकरी में शामिल होंगे जिसमें वे लॉकडाउन से पहले लगे हुए थे। दूसरे शब्दों में वे नौकरियों या आजीविका विकल्पों के इस नुकसान को एक अस्थायी घटना मानते हैं।

हालांकि नई राजकोषीय गतिविधियों में बेरोज़गार प्रवासी श्रमिकों का अवशोषण काफी हद तक प्रकृति और सरकार की नीतियों पर निर्भर करेगा जो शहरों की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए रखी गई हैं। यह ज़्यादातर स्थानीय व्यवसायों और छोटे और सूक्ष्म उद्यमों को बढ़ावा देकर किया जा सकता है।

कहां आ रही हैं चुनौतियां

शहर के निर्माताओं के लिए उचित नीतियों को तैयार करने के लिए एक चुनौतीपूर्ण काम किसी भी तरह के आपातकाल से पहले और उसके दौरान उनके बारे में डेटा की कमी है। इसलिए सरकारों द्वारा शुरुआती तैयारी आवश्यक है।

किसी भी केंद्र और राज्य सरकार के राहत उपायों का लाभ उठाने के लिए नकद और गैर-नकद दोनों तरह के लाभ के लिए लोगों के पास सरकारी दस्तावेज राशन कार्ड, आधार कार्ड, बैंक खाता होना चाहिए और विभिन्न सरकारी कल्याण योजनाओं पर नाम अंकित होना चाहिए।

सर्वेक्षण में पता चला कि सरकारी सहायता कार्यक्रमों के लिए पात्रता का कवरेज एक प्रमुख चिंता का विषय था जैसा कि उत्तरदाताओं द्वारा विभिन्न महत्वपूर्ण दस्तावेजों की स्थिति से स्पष्ट है।

लगभग 23 प्रतिशत उत्तरदाताओं के पास राशन कार्ड नहीं थे, 32 प्रतिशत के पास ज़ीरो बैलेन्स वाले जन-धन बैंक खाते नहीं थे और औसतन 10 में से केवल एक उत्तरदाता भारत सरकार के प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ-साथ जीवन बीमा योजनाओं जैसे आयुष्मान भारत, पीएम जीवन ज्योति बीमा और पीएम सुरक्षा बीमा योजना के अंतर्गत आता है।

सरकार नहीं कर पा रही है लोगों को जागरूक: प्रतीकात्मक तस्वीर

जागरूक नहीं कर पा रही है सरकार

सर्वेक्षण में मौजूद उत्तरदाताओं में से लगभग 65 प्रतिशत को आरोग्यसेतु एप्प के बारे में पता है और उनमें से 62 प्रतिशत ने एप्प के उपयोग की सूचना दी। केवल 38 प्रतिशत उत्तरदाताओं को स्टेट व्हाट्सएप्प हेल्पलाइन के बारे में पता है। अन्य एप्लिकेशन और ई-पहल के लिए जागरूकता का स्तर बहुत खराब है।

लगभग 20-30 प्रतिशत उत्तरदाताओं को ही राशन के लिए राज्य ई-कूपन, राज्य ई-पास या अन्य अलग-अलग राज्य एप्प के बारे में पता है और उनमें से इन एप्प का उपयोग और भी दयनीय है। स्मार्टफोन तक पहुंच में कमी और अस्थिर इंटरनेट कनेक्टिविटी, एप्प और पोर्टल्स का उपयोग करने में प्रमुख बाधाएं हैं।

सरकारी सहायता कार्यक्रमों की पात्रता और उनकी जागरूकता के बारे में केवल 37 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने सोचा कि वे प्रधानमंत्री ग्रामीण कल्याण योजना के तहत लाभ के लिए पात्र हैं। कोविड-19 से लड़ने के लिए 20 लाख करोड़ का परिव्यय वाली योजना के तहत केवल 34 प्रतिशत उत्तरदाता नकद हस्तांतरण और मुफ्त राशन का लाभ उठा सके हैं।

आखिर समाधान क्या है

उपरोक्त साक्ष्यों के प्रकाश में संकट से निपटने के लिए सटीक नीतिगत सुधारों के बारे में सोचना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। इसके लिए विभिन्न योजनाओं तक पहुंचने के लिए कठोर आधार-आवश्यकताओं को कम-से-कम अगले छह महीनों के लिए आराम देना चाहिए। एक अन्य विकल्प एक नौकरी आश्वासन कार्यक्रम हो सकता है जो स्वास्थ्य संकट के दौरान ज़रूरतमंद परिवारों को आजीविका की सुरक्षा देगा।

अनिवार्य रूप से कोविड-19 संकट के लिए अत्यंत स्थानीय और समन्वित प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता होती है। इसलिए शहर की सरकारों और उनके चुने हुए प्रतिनिधियों को बुनियादी शहरी सेवाओं की ज़ोरदार डिलीवरी का फैसला करना चाहिए जो उनके संदर्भों में सबसे प्रभावी हो सकते हैं।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के कवरेज में सुधार और विस्तार करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उपलब्ध सरकारी सहायता कार्यक्रमों विशेष रूप से पीडीएस, समय पर विश्वसनीय जानकारी के माध्यम से जागरूकता की खाई को कम करना और विकल्प के रूप में प्रमाणीकरण के कुछ अस्थायी रूपों के माध्यम से ज़रूरतमंद लेकिन गैर-पंजीकृत क्षेत्रों में ऐसे कार्यक्रमों के कवरेज का विस्तार करना बहुत उपयोगी हो सकता है।

परेशान गरीब मज़दूर

ज़रूरतमंदों तक पहुंचानी होगी मदद

पिछले आर्थिक सर्वेक्षण (2019-20) में “थैलिनोमिक्स” की बात की गई थी जो कहता है कि एक अच्छे शाकाहारी और मांसाहारी थाली की कीमत क्रमशः न्यूनतम 25 और न्यूनतम 40 रुपये होती है। इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए कि आबादी के सबसे गरीब वर्ग अपनी आहार आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम हो पाए प्रत्येक चिन्हित ज़रूरतमंद व्यक्ति को प्रति दिन एक डॉलर यानी लगभग 2,000 प्रति माह प्रदान किया जाना चाहिए।

इसके अलावा सभी को कोविड-19 के प्रसार के बारे में सतर्क रहने के लिए, गरीब परिवारों के बच्चों के लिए डिजिटल साक्षरता और कल्याणकारी योजनाओं के डिजिटल भुगतान के सुचारू हस्तांतरण के लिए गरीब परिवारों को मुफ्त या अनुदानित दर पर पीडीएस दुकानों के माध्यम से एक एंड्रॉयड फोन प्रदान किया जाना चाहिए।

इसके अलावा निजी क्षेत्रों यानी सीएसआर घटकों को आगे आना चाहिए और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को मुफ्त सिम और डेटा कूपन प्रदान करना चाहिए। लोगों के बीच डिजिटल साक्षरता सुनिश्चित करने के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है।

गरीब मज़दूर: प्रतीकात्मक तस्वीर

डिजीटल योजनाओं में गरीब परिवारों को भी करना होगा शामिल

अमेरिका में बेरोज़गारों को भत्ते के रूप में $ 300- $ 400 दिए जा रहा है। ऐसे ही गरीबों को एक सम्मानजनक सहायता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार भी प्रत्येक गरीब व्यक्ति को प्रति दिन $ 1 (लगभग 75 रुपए) दे सकती है। अगर हम 12 करोड़ लोगों (शहरी आर्थिक सीढ़ी में निचले चतुर्थक जनसंख्या) को प्रति माह 2,000 रुपए सहायता देते हैं तो यह निश्चित रूप से उल्लेखनीय होगा। इसमें 24,000 करोड़ प्रति माह और 72,000 करोड़ तीन महीने का व्यय होगा।

इसके अलावा अगर हम शहरों में लगभग पांच करोड़ लोगों (सरकारी स्कूलों में जाने वाले बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को प्राथमिकता देते हुए) को श्रेणीबद्ध तरीके से एक एंड्रॉइड फोन दे सकते हैं। इसमें लगभग 30,000 करोड़ का व्यय होगा। प्रति हैंडसेट की लागत लगभग 6,000 रुपए के आसपास होगी।

कुल मिलाकर, यह एक लाख करोड़ की राशि होगी और यह महत्वपूर्ण होगा। इस तरह का प्रावधान निश्चित रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि भारत “अनलॉक” के चरण में आगे बढ़ेगा। इसके लिए बजट 2020-21 के पुनर्गठन की आवश्यकता होगी और कोविड-19 के खिलाफ युद्ध के लिए भुगतान करने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार के 35 लाख करोड़ रुपए का सही इस्तेमाल किया जा सकता है।

यह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान केनेसियन के कार्यकाल के समान एक बेहतर समाज बनाने में मदद करेगा।


इस लेख को अंग्रेज़ी में यहां पढ़ा जा सकता है।

लेखक – डॉ. अर्जुन कुमार, निदेशक, प्रभाव एवं नीति अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

हिन्दी अनुवाद – पूजा कुमारी, विजिटिंग रिसर्चर, प्रभाव एवं नीति अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

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