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एनकाउंटर और त्वरित न्याय के दौर में न्यायपालिका की गिरती साख

एनकाउंटर और त्वरित न्याय के दौर में न्यायपालिका की गिरती साख

विकास दूबे का जिस तरह से “एनकाउंटर” किया गया है, वह राजनीति और अपराध के बीच के संबधों को एक बार फिर से पुख़्ता करता है। जो लोग प्रक्रिया के बजाय परिणामों में ज्यादा विश्वास रखते हैं वे आज के दिन एक बार फिर से संतुष्टि का भाव महसूस करेंगे। इस तरह के एनकाउंटर आम लोगों में जोश और रोमांच भी भरता है और साथ ही “न्याय हुआ” की खुशफहमी भी पैदा करता है। लेकिन ऐसी घटनाओं से यह भी सिद्ध होता है कि ‘स्टेट’ को खुद अपने ‘न्यायिक प्रक्रिया’ में कितना यक़ीन रह गया है। लोग यह जानते हुए भी कि एनकाउंटर फर्जी था, खुश हो रहे हैं। क्योंकि वे सुस्त और थकाऊ न्यायिक प्रक्रिया से इतने ऊब चुके हैं कि न्याय का यह तरीका ही उन्हें सही लगने लगा है। इसके अलावा ऐसे अपराधियों की राजनीतिक साँठ-गाँठ भी लोगों के भीतर एक अविश्वास पैदा करता है, वे मान कर चलते हैं कि जेल होने पर भी ऐसे लोग कभी न कभी छूट ही जाएंगे। इसके अलावा सत्ताधारी पक्ष से सहानुभूति रखने वालों का एक वर्ग इसलिए भी खुश है कि वे इसे सरकार की ‘बड़ी सफलता’ के रुप में पेश कर आगामी चुनावों से लेकर सोशल मीडिया की बहसों में विरोधियों के ऊपर हावी हो सकेंगे। परंतु इन सबके इतर, मेरा मानना है कि भारतीय लोकतंत्र में शासन प्रणाली के अंतर्गत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की जो अवधारणा है, उसका इस तरह से बार-बार खंडित होना ठीक नहीं है। अगर सरकार ही न्यायालय में भरोसा नहीं रखेगी तो आम जनता न्याय प्राप्त करने के लिए कौन से उपायों पर निर्भर करेगी! उनके पास तो “त्वरित न्याय” के लिए इस तरह की सुविधाएं भी नहीं है। क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय विधि-व्यवस्था में केवल वही लोग भरोसा रखने के लिए बाध्य हैं जिनके पास न्याय पाने के “अतिरिक्त साधन” नहीं हैं? साधनसंपन्न वर्ग द्वारा अपने अर्थतंत्र के सम्मोहन से न्यायिक प्रक्रियाओं को मोह लेने की बात हम यदा-कदा सुनते ही रहते हैं, और उन्हें कोसते भी हैं। परन्तु सर्व शक्तिमान तंत्र द्वारा किये जाने वाले ऐसे सस्ते प्रहसन से न्याय-व्यवस्था की धज्जियां उड़ रही हैं और हम जश्न मना रहे हैं, तो इस पर एक बार हमें ठहर कर सोचने की जरूरत है। विकास दुबे की मौत का दुख शायद ही किसी को हो, परन्तु लोकतंत्र में अर्जित हर उस व्यवस्था और तंत्र के दरकने का शोक होना लाजिमी है, जिसके लिए लाखों लोगों ने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध अपनी जान गंवाई है। यह अनायास नहीं है कि गिरफ्तारी के बाद से ही कुछ लोग इस एनकाउंटर का अनुमान लगाने लगे थे। जो लोग राजनीति के अंदर मौजूद आपराधिक सड़ान्ध को जानते हैं उनके लिए इस तरह का अनुमान लगाना कोई मुश्किल भी नहीं था, परंतु न्याय के भेष में अंदरखाने में किये गए ‘पोलिटिकल सेटलमेंट’ पर जिस तरह से जनता अभिभूत है वह देखने योग्य है! बहरहाल, सरकार के पास यही मौके होते हैं जब वह विधिसम्मत प्रक्रियाओं से गुजरते हुए ऐसे अपराधियों को जल्द से जल्द सजा दिला कर जनता के सामने एक उदाहरण पेश कर सके। परंतु हेडलाइन में बने रहना और सनसनी पैदा करना सत्ता का पुराना शग़ल रहा है। वैधानिक किंतु लंबी चलने वाली प्रक्रियाएं लोकतंत्र को तो मजबूती दे सकती है परंतु इससे सरकार को फायदा हो इसकी गारंटी नहीं होती है। इसके लिए सरकार को अथाह धैर्य और नेक नीयत की जरूरत होती है, उन लोकतांत्रिक मूल्यों में अगाध निष्ठा की भी आवश्यकता होती है जिसे छलकर वे सत्ता के गलियारों तक पहुँचते हैं। अतः स्वाभाविक है कि उन पर लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं को बचाने से ज्यादा खुद को “हीरो” साबित करने का दबाव रहता है। परंतु जनता सरकार के ‘हीरोइज़्म’ से अभिभूत होकर यह भूल जाती है कि सरकारें आनी-जानी हैं परंतु ये व्यवस्थाएं, ये संस्थाएं आज़ादी के दौर से चली आ रही हैं और जब तक लोकतंत्र है तब तक हमें इसी के भरोसे रहना है। ऐसी क्षणिक सफलताएं और खुशियां कालांतर में हम पर भारी भी पर सकती है। क्योंकि इस तरह की घटनाओं को व्यापक जन समर्थन प्रदान कर हम खुद ही सरकार को जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुक्त कर रहे हैं।

सुकांत सुमन

अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली

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