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जिंदगी को हकीकत में जोड़कर जीना सिखाती है फिल्म दिल बेचारा

दिल बेचारा
कई बार जिंदगी फिल्मों की तरह हो जाती है। माने फ़ास्ट फारवर्ड। कितनी भी संभालने या रोकने की कोशिश करो, साला कोई दांव पेंच काम नहीं आता। आपकी सारी होशियारी, पढ़ाई और टेक्निकल नॉलेज धरा का धरा रह जाता है। बीमार होना कुछ ऐसा ही होता है, आपके दिमाग और जिस्म को अलग अलग कर देती है बीमारी।
और वो कैंसर हो तो होश भी फाख्ता हो जाते हैं। जब आप किसी अपने को बड़े करीब से मरते देख लेते हो तो उसके निकल जाने के बाद भी आप उसके हिस्से की मौत रोज मरते हो। किश्तों में। एक डर आपसे चिपक जाता है। शायद ताउम्र के लिए। कुछ महीने पहले ही किसी अपने के जरिये कैंसर को करीब से देख चुका हूँ। ये जान तो एक की लेता है पर खुशियां उस परिवार की तमाम लोगों की ले लेता है। खैर। दिल बेचारा फ़िल्म यानी सुशान्त की आखिरी फ़िल्म। सुबह के करीब साढ़े 3 बजने वाले हैं, और मैं फ़िल्म देख के हटा हूँ। एक्टिंग, डायरेक्शन, टेक्निकल अस्पेक्ट की बात नहीं लिखूंगा क्योंकि ट्रेलर से कहानी सबको पता चल गई थी, फ़िल्म बताती है कि जिंदगी एक है और इसे जीने के ढंग अनेक हैं।चाहे लम्बी है या छोटी क्यों न जिंदगी को खुलकर और हंसकर जिया जाए ताकि कुछ अधूरा न रह जाए। दरअसल जीना सिखाती है ये फ़िल्म। ये फ़िल्म एक शानदार एक्टर को ट्रिब्यूट है पर हां डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा से एक शिकायत जरूर है, फ़िल्म को इतना फ़ास्ट फारवर्ड करने की क्या जरूरत थी, सुशांत को कम से कम इस फ़िल्म के जरिये तो एक जिंदगी जी लेने देते। 3 घण्टे की जिंदगी जो अब एक 1 घण्टा 40 मिनट की होकर हमेशा से यादों में रह जाएगी। सबसे जरूरी बात, हम सबके बीच अपने अपने जानने वाले सुशान्त राजपूत हैं, जो सेलिब्रिटी तो नहीं पर हमारे लिए मायने रखते हैं, ये जरूरी है उनका साथ दें और सहयोग करे।

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