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26 जुलाई को ‘ ‘#National_Social_Justice_Day’ ‘ घोषित करने की जरूरत हैं.

सामाजिक न्याय की लड़ाई से सरोकार रखने वाले कुछ साथियों द्वारा प्रस्तावित है,

गौर कीजिए और राय दीजिए!……

 

*26 जुलाई 2020 रविवार को ‘ राष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस ‘ मना कर एक नई परंपरा की शुरुआत करें* 

 

“ जो कौम अपने इतिहास को भूल जाता है वह उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होता है ”

 

मित्रों, 

 

विश्व की ज्वलंत समस्याओं / मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पैमाने पर जन जागरूकता फैलाने और ऐतिहासिक महत्व के दिनों को याद करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ / विभिन्न वैश्विक संस्थाएं / भारत सरकार अंतर्राष्ट्रीय दिवस / राष्ट्रीय दिवस की घोषणा करती आयी है. उदाहरण के लिए 05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस, 08 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, 01 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस और अपने देश में 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस ( स्वामी विवेकानंद जयंती के अवसर पर ) मनाया जाता है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की अनुशंसा पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने 20 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस घोषित कर रखा है. यह मुख्य रूप से वैश्वीकरण के चलते वैश्विक पैमाने पर आयी तीव्र आर्थिक असमानता जिसके चलते सामाजिक असंतुलन पैदा हुआ है को संबोधित करता है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब इसको अपनाया तब इसमें सामाजिक भेदभाव के कुछ कारकों जैसे लिंग, नस्ल, धर्म, संस्कृति, शारीरिक मानसिक अयोग्यता को शामिल किया. इसमें जाति शामिल नहीं है. हालाँकि एक अवधारणा के तौर पर सामाजिक न्याय के पक्ष में यह जागरूकता पैदा करता है किन्तु जाति व्यवस्थ के चलते उत्पन्न सामाजिक अन्याय, असमानता, शोषण, वंचना और उत्पीड़न, जिसका इतिहास शताब्दियों पुराना है, से इसका संबंध नहीं रहने के कारण यह भारत की नब्बे प्रतिशत दलित – आदिवासी – पिछड़ी आबादी की जरूरतों को पूरा नहीं करता है.    

 

कहते हैं कि जो कौम अपने इतिहास को भूल जाता है वह उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होता है। यह दौर सामाजिक न्याय पर हमलों और सामाजिक न्याय के लिए विगत डेढ़ सौ सालों में, जोतिबा फुले के समय से,  हासिल उपलब्धिओं को खत्म करने की कोशिशों का है. सामाजिक न्याय के लिए हमारे पूर्वजों ने अथक प्रयास, त्याग और बलिदानों से जो कुछ हमारे लिए हासिल किया था उसको संरक्षित रखने, उनके संघर्षों और इतिहास को बार – बार याद करने और सामाजिक न्याय का दायरा जीवन और व्यवस्था के सभी अंगों में प्रसारित हो सके, इसके लिए प्रत्येक साल 26 जुलाई को ‘ *राष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस* ‘ ‘ *National Social Justice Day* ‘ के रूप में मनाने की परंपरा की शुरुआत करने की जरूरत है। इसका न केवल विराट प्रतीकात्मक महत्व है बल्कि यह समस्त शोषित समाज के लिए एक नई संस्कृति को गढ़ने का भी काम करेगा। 

 

 *26 जुलाई 1902* भारत के इतिहास में वह दिन है जब बीसवीं सदी में भारत में सामाजिक न्याय की औपचारिक शुरुआत हुई थी. आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय के लिए पहला व्यवस्थित काम जोतिबा फुले के आंदोलन से प्रभावित होकर कोल्हापुर रियासत के राजा शाहूजी महाराज ने *सन् 1902 में 26 जुलाई* को किया जब उन्होंने सरकारी आदेश निकालकर अपनी रियासत के प्रशासनिक पदों में पचास प्रतिशत पद निम्न जातियों के लिए आरक्षित कर दिया। इसके अलावा उन्होंने अछूतों और पिछड़ों के लिए कई ऐतिहासिक कार्य किए। शाहूजी महाराज के कार्यों से आजादी की लड़ाई के दौरान सामाजिक न्याय एक अहम मुद्दा बना। शाहूजी महाराज ने सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आरक्षण का जो मॉडल प्रस्तुत किया वह आगे चलकर पूरे देश में फैल गया। उनका अनुकरण करते हुए मैसूर के राजा ने और फिर मद्रास प्रेसीडेंसी में अंग्रेजी काल में हुए चुनाव में बनी जस्टिस पार्टी की सरकार ने आरक्षण लागू किया। दलित – आदिवासी समाज को विधायिका और कार्यपालिका में जो आरक्षण अंग्रेजी काल में मिले उसके लिए नींव शाहूजी महाराज ने तैयार कर दिया था। आजादी के बाद केरल में निर्वाचित कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने आरक्षण लागू किया। यही कारण है कि दक्षिण भारत मानव विकास के सभी मानकों में उत्तर भारत से बहुत आगे बढ़ा हुआ है। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ सामाजिक न्याय भारत देश की  बुनियाद है। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के तीन स्तंभों पर हमारा भारत देश खड़ा है. सामाजिक न्याय की अवधारणा और उसका व्यवहार भारतीय लोकतंत्र की मूल चालक शक्ति है।

 

26 जुलाई 1902 को शाहूजी महाराज ने सामाजिक अन्याय के शिकार लोगों के लिए सामाजिक न्याय की जो मशाल जलायी थी वह आज तक जल रही है जिसको बुझाने की हर संभव कोशिश सामाजिक वर्चस्ववादियों का समूह करता आ रहा है और आज बढ़-चढ़ कर कर रहा है। सामाजिक वर्चस्ववादियों को पता है कि कोई उपाय जो धन – ज्ञान – सत्ता – सम्मान में उनके एकाधिकार को तोड़ कर नब्बे प्रतिशत शोषितों को आगे बढ़ने के लिए समान अवसर प्रदान कर सकता है और समता के सिद्धांत पर आधारित भारतीय समाज का पुनर्निर्माण कर सकता है तो वह शिक्षा, सरकारी सेवाओं में चल रही और व्यवस्था के अन्य अंगों में प्रस्तावित आरक्षण की नीति है। वे इस सोच के तहत चल रहे हैं कि आरक्षण का दायरा बढ़ाने की मांग इससे पहले कि व्यवस्था के अन्य अंगों में फैले उसके पहले आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को बेकार कर देना है। ऐसी सोच रखने वालों के लिए जीसस की वह प्रसिद्ध पंक्ति उपयुक्त है जो उन्होंने अपने हत्यारों के लिए कहा था, “हे, ईश्वर उन्हें माफ़ कर देना, वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं.” सामाजिक न्याय पर गिद्ध दृष्टि लगाये ऐसे लोगों के पास इसका क्या जवाब है कि चाहे हार्डवेयर हो या सॉफ्टवेयर हम अन्य देशों में बनायी गयी वस्तुओं वस्तुओं के उपभोक्ता हैं, हमारे पास दुनिया को दोनों के लिए बहुत कम है, ओलंपिक गेम्स में हम फिसड्डी रहते हैं, विश्व कप फुटबाल में हम कभी क्वालीफाई नहीं कर पाते हैं आदि आदि. आप जब देश की नब्बे प्रतिशत आबादी को समान अवसर से दूर रखेंगे तो वही होगा जो विगत सात दशकों से होता आया है यानि हरेक ओलंपिक गेम्स में फिसड्डी, विश्व समुदाय में ज्ञान विज्ञानं और मानव विकास के सूचकांक में पिछड़ेपन का रोना रोते आये हैं.         

 

सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष इस देश का सबसे बड़ा संघर्ष है जो शताब्दियों से चला आ रहा है। सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष को दलितों – पिछड़ों – आदिवासियों के सामाजिक सम्मान और समान अवसर के सिद्धांत तक सीमित करना तर्कसम्मत नहीं होगा. यह भारत देश के गौरव को हासिल करने का संघर्ष है. इस संघर्ष का मूल उद्देश्य दलितों – पिछड़ों – आदिवासियों, जो भारतीय समाज में वर्ण / जाति / सामाजिक शोषण की व्यवस्था के तहत शताब्दियों से शोषित – वंचित – उत्पीड़ित हैं, को ज्ञान – धन – सत्ता – सम्मान में व्यापक भागीदारी सुनिश्चित कर जातिविहीन समाज की स्थापना करना है जिससे देश की नब्बे प्रतिशत आबादी गरीबी – पिछड़ापन – अशिक्षा – सामाजिक अन्याय से मुक्त होकर और समान अवसर पाकर अपनी प्रतिभा और काबिलियत को निखार कर विश्व समुदाय में भारत को ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, कला, साहित्य, खेल – कूद, संस्कृति, आर्थिक और मानव विकास के सभी मानकों में प्रगति और विकास के उच्चतम शिखर पर ले जा सके। जैसे ही नब्बे प्रतिशत शोषित आबादी को समान अवसर मिलेंगे, देश प्रतिभा और ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट देखेगा. सामाजिक न्याय वह चाबी है जिससे भारत और भारतीयों की मेधा और संभावनाओं के बंद दरवाजे खुलेंगे. “जो सामाजिक न्याय के पक्ष में काम करेगा, वही असली देशभक्त / राष्ट्रवादी कहलायेगा.” 

 

सामाजिक न्याय लागू नहीं होने के चलते देश की बड़ी आबादी के पास क्रय शक्ति का अभाव है. अर्थव्यवस्था का इंजन उस देश की जनता का क्रय शक्ति होता है. भारत की अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक मध्यम वर्ग की क्रय शक्ति के भरोसे ऊंचे विकास दर पर नहीं चलाया जा सकता है. आज भारतीय अर्थव्यवस्था में जो गिरावट आयी है उसका मूल कारण और कुछ नहीं बल्कि देश की बड़ी आबादी के पास क्रय शक्ति का अभाव होना है. दुनिया के जिन देशों ने तरक्की किया उन्होंने सबसे पहले अपने देश में सामाजिक गैर बराबरी, अशिक्षा, गरीबी और पिछड़ापन दूर किया जिससे बड़ी आबादी के पास क्रय शक्ति का सृजन हुआ और वे आर्थिक और प्राद्योगिक महाशक्ति बने.      

 

हमारे संविधान निर्माताओं ने जाति आधारित शोषण से जर्जरित भारतीय समाज की असलियत और इसके खिलाफ हुए सामाजिक संघर्षों की पृष्ठभूमि में नवोदित राष्ट्र के नवनिर्माण में सामाजिक न्याय के  महत्व को समझते हुए संविधान की प्रस्तावना में इसे राजनीतिक और आर्थिक न्याय से पहले रखते हुए संविधान में सामाजिक न्याय के लिए कई प्रावधानों को शामिल किया।

 

दलित – पिछड़ा – आदिवासी समाज के सभी नागरिकों से अनुरोध है कि आइए ‘ *राष्ट्रीय सामाजिक न्याय दिवस* ‘ मनाने की शुरुआत इसी साल इसी महीने *26 जुलाई 2020 रविवार*  से करें। सभा गोष्ठियां आदि होना महामारी के दौरान संभव नहीं जान पड़ता है किन्तु सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से इसे बखूबी किया जा सकता है।

सामाजिक न्याय आंदोलन(बिहार) के रिंकु यादव जी के लेख से.

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