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वे मौके, जब पुलिस पर लगे फर्ज़ी एनकाउंटर के आरोप

fake encounters in india

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विकास दुबे के एनकाउंटर ने एक बार फिर से पुलिस प्रशासन की कलई खोल दी है। पूर्व में भी ऐसे कई एनकाउंटर हुए हैं, जिन्होंने देश की पुलिस फोर्स पर सवालिया निशान खड़े किए हैं।

कुछ सवालों के जवाब जो हमारा समाज आज मांग रहा है, जिनका उत्तर तो वहां मौजूद पुलिस वाले ही दे सकते हैं। जैसे-:

विकास दुबे के एनकाउंटर पर बहुत से सवाल आ रहे हैं और कई दिग्गजों ने भी ट्वीट कर इस बात को खारिज़ किया कि यह एक साधारण एनकाउंटर था। कई नेता इस बात की जानकारी दे रहे हैं कि यह एक सोची समझी साज़िश के तहत हुआ है। प्राथमिक नज़रिये से देखा जाए तो यह एनकाउंटर नहीं शायद एक कत्ल है।

यह पहली बार नहीं जब देश की व्यवस्था शक के घेरे में है। इससे पहले भी कई ऐसे एनकाउंटर हुए हैं, जिन पर फर्ज़ी होने की मुहर लग चुकी है, जिनमें से प्रमुख हैं-

इशरत जहां मामला

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

गुजरात में साल 2002 से 2006 के बीच 23 एनकाउंटर किए गए थे। गुजरात पुलिस ने सभी एनकाउंटर को शुरुआत में वास्तविक बताया था। इन्हीं में से एक था इशरत जहां का एनकाउंटर।

15 जून 2004 को गुजरात पुलिस और अहमदाबाद के स्थानीय इंटेलिजेंस ब्यूरो पर खालसा कॉलेज मुंबई की इशरत जहां और उनके तीन साथियों को फर्ज़ी मुठभेड़ में मारने के आरोप लगे थे।

गुजरात पुलिस ने दावा किया कि इन कथित चरमपंथियों का सम्बन्ध लश्कर-ए-तैयबा से था और ये लोग गोधरा दंगों का बदला लेने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की योजना बना रहे थे। यह सरासर एक मनगढ़ंत बात साबित हुई।

सीबीआई ने जांच के बाद इस मुठभेड़ को इंटेलिजेंस ब्यूरो और गुजरात पुलिस के आला अफसरों की मिली भगत बताया था। मामले में फैसला आना बाकी है।

हैदराबाद एनकाउंटर

हैदराबाद रेप केस के बाद पुलिस द्वारा कथित आरोपियों का एनकाउंटर स्थल। फोटो साभार- सोशल मीडिया

किसी को भी नहीं पता कि असली अपराधी कौन था? रात के तीसरे पहर में ‘क्राइम सीन रिक्रिएट’ करने के लिए न्यायिक हिरासत से मौजूद हैदराबाद सामूहिक बलात्कार के 4 अभियुक्यतों को पुलिस शहर के शादनगर इलाक में ले जाती है।

इसके कुछ ही घंटों बाद 6 दिसंबर 2019 की सुबह होती है और हिंदुस्तान एक सनसनीख़ेज ‘पुलिस एनकाउंटर’ की ख़बर सुनने को मिलती है। कई तरफ से पुलिस को इस बात की शाबाशी मिलती है और लोग जश्न मनाने लगते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग इस एनकाउंटर पर उंगली उठा रहे हैं।

संजुक्ता बसु ट्विटर पर लिखती हैं, ”हम क्या बन गए हैं। इस बात के क्या सबूत हैं कि मारे गए लोग ही दोषी हैं? क्या ऐसे सबूत हैं, जो ये साबित कर सकें। वहीं, मारे गए लोगों के पास शायद वकील भी नहीं थे। ऐसे लोग एनकाउंटर में मारे गए और हम जश्न मना रहे हैं।”

इनकी यह बात कहीं ना कहीं एक सच्चाई को उगलती है।।दूसरी ओर मेनका गाँधी भी इसके विपक्ष में नज़र आईं। उन्होंने बताया, “मैं इस एनकाउंटर के पूरी तरह खिलाफ हूं। जो कुछ भी हुआ वह बहुत ज़्यादा भयानक है। आप कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते। कानून के हिसाब से वैसे भी उन्हें फांसी मिलती। अगर कानून से पहले ही उन्हें बंदूकों से मार दोगे फिर अदालत, पुलिस और कानून का फायदा ही क्या है?”

सोहराबुद्दीन हत्या

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

गुजरात के अहमदाबाद में साल 2005 में सोहराबुद्दीन शेख का राजस्थान और गुजरात पुलिस के ज्वाइंट ऑपरेशन में एनकाउंटर कर दिया गया था। साल 2006 में यह केस आगे बढ़ा और सोहराबुद्दीन के साथ रहे तुलसी प्रजापति का भी एनकाउंटर कर दिया गया।

यह केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। इससे पहले गुजरात सीआईडी और 2010 में सीबीआई को इस केस की जांत की कमान सौंपी गई थी। सीबीआई ने 2010 में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाई फिर केस में राज्य के नेताओं के नाम अभियुक्तों के तौर पर सामने आने लगे। तो यह बात शासन के विरुद्ध होने लगी।

इस केस की जांच करने वाले गुजरात सीआईडी के पुलिस इंस्पेक्टर वीएल सोलंकी ने सीबीआई को दिए अपने बयान में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री अमित शाह का नाम लिया था। सोलंकी के मुताबिक अमित शाह चाहते थे कि एनकाउंटर की जांच बंद कर दी जाए। ऐसा अमित शाह ने किस बिनाह पर कहा? यह एक सवाल है जिसका आज तक कोई जवाब नहीं मिला।

सीबीआई की जांच में बाहर आए तथ्यों के मुताबिक, राजस्थान में मार्बल के खदान के मालिक विमल पटनी ने सोहराबुद्दीन शेख की हत्या के लिए गुलाब चंद कटारिया से संपर्क साधा था और दो करोड़ में यह काम अमित शाह के पास आया था।

सरकेगुड़ा नरसंहार

छत्तीसगढ़ पुलिस ने 28 जून 2012 को बीजापुर ज़िले के सरकेगुडा में गोलियों की तड़तड़ाहट से 17 लोगों की हत्या कर दी और इसे नक्सलियों के खात्मे के रूप में पारित किया, जो वास्तव में ग्रामीण थे।

जांच कमेटी द्वारा बनाई गई रिपोर्ट के मुताबिक, पुलिस स्पष्ट रूप से बताती है कि गोलियों से मारे गए लोग माओवादी नहीं थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीणों की तरफ से गोलीबारी के पुलिस के दावे गलत थे और सुरक्षा बल लक्षित समूह को माओवादी होने या सुरक्षा बलों पर गोलियां चलाने का कोई सबूत नहीं दे सके।

सरकेगुडा गाँव में 17 लोगों की मौत पर सवाल उठाए जाने के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार ने एक सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग का गठन किया था, जिसने एक महीने पहले अपनी रिपोर्ट सौंपी थी।

न्यायमूर्ति अग्रवाल ने सेवानिवृत्ति से पहले 17 अक्टूबर को सरकार को रिपोर्ट सौंपी और इसे शनिवार देर रात छत्तीसगढ़ कैबिनेट के सामने गया और सोमवार को विधानसभा में पेश किया गया। प्रतिद्वंद्वी दलों द्वारा रिपोर्ट की चयनात्मक व्याख्या पर राजनीतिक बयानबाज़ी की जा रही है।

आयोग ने कहा कि पुलिस की जांच त्रुटिपूर्ण है और उसके साथ छेड़छाड़ की गई। रिपोर्ट में घटनास्थल से बंदूक और छर्रों को जब्त करने के पुलिस के दावों को खारिज़ किया गया है।

पीड़ितों की ओर से पेश अधिवक्ता ईशा खंडेलवाल का कहना है कि यह ग्रामीणों की न्याय की लड़ाई थी। पिछले लंबे समय से न्याय संभव प्रतीत होता है। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया पर रिपोर्ट देखी थी लेकिन उन्हें या ग्रामीणों को कोई आधिकारिक प्रति नहीं सौंपी गई है।

इन सभी एनकाउंटर में कानूनी कार्रवाई कब तक चलेगी यह नहीं पता है। इसका जवाब किसी के पास नहीं होगा मगर इसमें मरने वाले अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। यह बहुत ही मार्मिक विषय है, जो किसी के भी दिल को भेद सकता है।

कई बार फर्ज़ी एनकाउंटर में गुजरात और मुंबई का नाम सामने आया है। हालांकि उत्तर प्रदेश में पुलिस एनकाउंटर्स पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं और कई मामलों में एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मी अदालत से दोषी भी ठहराए जा चुके हैं। बावजूद इसके पुलिसकर्मियों और पुलिस अधिकारियों को पुरस्कृत करने या फिर उन्हें समय से पहले प्रोन्नत करने का यह एक अहम पैमाना होता है।

आज के समाज को ज़रूरत है एक प्रभावशाली न्यायिक व्यवस्था की। वरना यही समझा जाता रहेगा कि प्रशासन आपको भीड़ में किसी को कभी भी मारने की छूट दे रहा है।


संदर्भ- बीबीसी हिन्दी, इंडिया टुडे

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