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UP बोर्ड एग्ज़ाम: हिन्दी विषय में 8 लाख बच्चों के फेल होने की ज़िम्मेदारी किसकी है?

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गुड मॉर्निंग, हाउ आर यू? वेल……दिन की शुरुआत में दूरभाष यंत्र से इस तरह के इंग्लिश शब्दों से बात का आगाज़ करने में जहां के लोग श्रेष्ठ होने की आत्ममुग्धता में रहते हों, वहां के एक हिंदी भाषी प्रदेश में 8 लाख बच्चों का हिंदी में अनुत्तीर्ण हो जाना कोई हैरत की बात नहीं है।

हिंदी भाषा के पतन के दोषी आप और हम

यहां पर हिंदी पर बात करने का कारण है उत्तर प्रदेश की बोर्ड परीक्षा का परिणाम जिसमें 8 लाख बच्चे हिंदी में अनुत्तीर्ण हो गए। हिंदी की यह दुर्दशा एकाएक नहीं हुई, बल्कि सामाजिक उपेक्षा के परिणामस्वरूप ही हिंदी धीरे -धीरे पतनोन्मुख हुई है।

यद्यपि हिंदी को लेकर पहले भी सवाल उठते रहे हैं लेकिन इस बार स्थिति और भयावह है। ऐसे में सवाल भी तीखे हैं। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या हिंदी हमारे लिए सिर्फ एक भाषा बनकर रह गई या फिर हिंदी के विषय में यह मान लिया गया कि इसका सतही ज्ञान ही पर्याप्त है।

क्या योग्यता का पैमाना है इंग्लिश भाषा?

वास्तव में इस स्थिति के लिए हमारा सामाजिक परिवेश काफी हद तक ज़िम्मेदार है। मुझे अभी भी याद है मेरे बाबा अक्सर मुझसे कहा करते थे ‘इंग्लिशयो आवत है कि नाहीं?” चूंकि मेरे गणित सहित अन्य विषय अच्छे थे लेकिन मेरे बाबा अक्सर अपने सामने इंग्लिश की किताब पढ़वाते थे।

उनके लिए मेरी योग्यता का पैमाना उस इंग्लिश की किताब पढ़ने तक ही था। ये उदाहरण यद्यपि मेरे बाबा का है लेकिन ये मानसिकता हमारे परिवेश के कमोबेश हर व्यक्ति की है। इंग्लिश में  फर्राटेदार बातें करना व्यक्ति की योग्यता के पैमाने से जोड़ दिया गया।

आज-कल आप आसानी से कॉन्वेंट विद्यालयों की भरमार देख सकते हैं। जहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा है। अभिभावक भी बच्चों का प्रवेश इन अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में करवाना अपनी शान समझते हैं और नुक्कड़ या चौराहों पर जहां शिक्षा की बातें हो रही हों, वहां ये बड़े सम्मान से ये बताते हैं कि उनका बच्चा इंग्लिश मीडियम में पढ़ता है।

इनकी बहसों के बीच अगर कोई हिंदी मीडियम वाले बच्चे का अभिभावक हो तो उसकी स्थिति एप्पल कम्पनी के फोन के सामने किसी चाइना कम्पनी के फोन के समान ही होती है।

दूसरे हिन्दी के प्रति उपेक्षा का बड़ा कारण इसका रोज़गार से अंग्रेज़ी की तुलना में कम जुड़ पाना भी है। यह हाल सरकारी सेक्टर से लेकर प्राइवेट सेक्टर तक का है।

लोगों को रिझाने के लिए इंग्लिश भाषा को महत्व दिया जा रहा है

छोटे-मोटे शोरूम, मॉल में भी काम करने वाले लोगों से इंग्लिश में हाय, हैलो, बाय, नाइस जैसे शब्दों के प्रयोग से ग्राहकों को डील करने वालों से आसानी से हमारा सामना हो ही जाता है। अधिकांश मामलों में इनके वेतन उसी जगह काम करने वाले हिंदी भाषियों की अपेक्षा अधिक होता है।

सरकारी क्षेत्र में हम स्टूडेंट्स के इस बात के लिए धरने देते देख ही चुके हैं कि हिंदी भाषी वालों का नौकरियों में चुनाव इंग्लिश भाषियों की तुलना में कम ही होता है। यहां तक कि अधिकांश प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वालों की मानसिकता भी अंग्रेज़ी माध्यम में प्रश्नपत्र हल करने की तरफ झुक गई है। वे यह मानने लगे हैं कि इंग्लिश भाषियों के लिए अधिक अवसर मिलते हैं।

चौराहों, नुक्कड़ों पर फर्राटेदार इंग्लिश बोलने की गारंटी देने वाले कोचिंग संस्थानों से निकलते स्टूडेंट्स की भीड़ इंग्लिश के प्रति बन चुकी इसी धारणा की पुष्टि करती हुई दिखती है। इसके साथ ही अधिकांश सरकारी कार्यालयों के कार्य अंग्रेज़ी में ही होते हैं। ऐसे में हिंदी की तरफ से झुकाव कम होना लाज़मी ही है।

आखिर हिंदी भाषा को पुराने स्वरूप में कैसे लाया जाए?

आखिर हिंदी को किस तरह से स्थापित किया जाए यह हमारे सामने एक जटिल प्रश्न है। क्या हिंदी को स्थापित करने के लिए इंग्लिश को कमतर कर दिया जाए? नहीं, मैं ऐसा बिल्कुल नहीं मानता। इंग्लिश को अपनी जगह रहने दिया जाए लेकिन हमें हिंदी को भी प्रभावशाली बनाना होगा।

सरकारी कार्यालयों के कामकाज को हिंदी में भी करने के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसी तरह सराकरी नौकरियों हेतु भी हिंदी को अनिवार्य किया जाना चाहिए। हिंदी के शिक्षकों को अच्छी शिक्षा देने के साथ-साथ उन्हें उचित पारिश्रमिक भी मिलना चाहिए। किसी भी तरह से हिंदी के शिक्षकों और स्टूडेंट्स को यह एहसास नहीं होने देना चाहिए कि वे अंग्रेज़ी वालो की तुलना में कमतर हैं।

मैं बड़ा अचम्भित होता हूं जब अंग्रेज़ी बोलने वाले को हिंदी बोलने वाले की तुलना में ज़्यादा योग्य समझा जाता है। आखिर ‘मे आई कम इन’ कहने वाला ‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं’ कहने वाले की तुलना में कैसे ज़्यादा योग्य माना जा सकता है?

क्या अंग्रेजी में अंदर जाने की अनुमति लेने वाला जहाज की गति से अंदर जाएगा? वह भी हिंदी बोलने वाले की तरह से ही दो पैरों के सहारे अंदर जाएगा फिर भी हमारी मानसिकता उसे श्रेष्ठ ही मानती है।

हमें इस धारणा को बदलना होगा। एक हिंदी भाषी होने के नाते आप कितनी भी अच्छी अंग्रेज़ी बोल लें लेकिन हमें अपने अंदर के भावों को व्यक्त करने के लिए जिस उतार-चढ़ाव, लय की ज़रूरत होती है, उसका जितना बेहतर प्रयोग हम अपनी भाषा में कर सकते हैं, उतना हम अंग्रेज़ी मे कभी नहीं कर पाएंगे।

हिंदी हमारे लिए सिर्फ एक भाषा नहीं है, बल्कि यह हमारे लिए एक संस्कृति की वाहक है। यह टूटी-फूटी रूप में ही सही मगर हमारे अनपढ़ पुरखों की वाणी रही है, हिंदी भाषा उनकी पुरातन शिक्षाओं, कहानियों को आधुनिक पीढ़ियों तक पहुंचाने का माध्यम भी है। यह हमारी आत्माओं में बसने वाली वाणी है। हमें इसे सहेजने के साथ-साथ उत्थान के मार्ग पर भी ले जाना होगा।

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