मेरे मुल्क मे बीमारी फैली है
एक आदमखोर महामारी फैली है!
ये कोई विषाणु या किटाणु नहीं
रंज़िशों के हवाले फैली हैं
ज़ुबानों मे कांटे हैं हाथों में पत्थर
देखो कितने शान से ये सवारी फैली है
आदम आदम से बैर में
इंसानियत को खाक कर रहा
डर लगता है मुझे कैसी ये जवानी फैली है
कोई मंदिर कोई मस्जिद नहीं छूटा इनसे
देखो कैसी हैवानियत फैली है
जिन्हें इबादत का इल्म नहीं, उनमें भक्ति बेशुमार फैली हैं
उस खुदा से डरो जिसे मैं “राम” कहती हूं!
गर वो हैं, तो तुम्हारी शाम फैली हैं!
जो परिन्दा मचलता है शमा को देखकर
बुझ जाती है वो, उसे खार कर!
सब्र करो तुम थोड़ा
और देखो
बहने वाला ‘रंग नहीं
लहू की चादर फैली हैं
मेरे मुल्क में बीमारी फैली है!
एक आदमखोर महामारी फैली है!