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कविता: “कुछ घरों में बैठे हैं और कुछ चलते ही जा रहे हैं”

migrants walking back home with their luggage behind them

पीड़ा हो रही है दिल रो रहा है
देखकर यह तमाशा
दिल रो रहा हैय़

इंसानियत की फिर से एक
व्याख्या लिखी जा रही है।

कुछ घरों में बैठे हैं और
कुछ चलते ही जा रहे हैं।

मैंने पूछा क्यों चल रहे हो?
तो जवाब मिला कि
घर को जा रहे हैं।

मैं सोचता हूं
जिनका घर बनाया
वे घर पर ही बैठे हैं।
मगर जिन्होंने घर बनाया
वे आज अपने घर को जा रहे हैं।

पीड़ा हो रही है
वेदना से यह दम तोड़ रही है।

कुछ घरों में बैठे हैं और
कुछ चलते ही जा रहे हैं।

मैं असहाय और शर्मशार हूं
यह परिदृश्य देखकर।

जहां ना तो मैं
कुछ कर पा रहा हूं
और समाज भी तमाशबीन बना हुआ है।

आज हम उन घरों में बैठे हुए हैं
जिन्हें बनाने वाले आज
अपने घरों को जा रहे हैं
बस चलते ही जा रहे हैं।

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