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सिर्फ साहित्यकार नहीं एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे भीष्म साहनी

Bhism Sahani

Bhism Sahani

आपको आनंद फिल्म का वो मशहूर संवाद याद है? “ये दुनिया एक रंग मंच है और हम सब इसकी कठपुतलियां।” सच ही तो है हर कोई यहां किरदार निभाने के लिए आता है और अपनी भूमिका पूरी होते ही इस रंगमंच को छोड़कर चला जाता है।

हमारे बीच कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें ढेर सारे किरदार निभाने होते हैं कभी दिग्गज साहित्यकार, तो कभी अभिनेता और कभी एक समाजिक कार्यकर्ता। ऐसे ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे भीष्म साहनी।

लोरी नहीं दंगों के शोर में बीता बचपन

8 अगस्त 1915 को अखंड भारत के रावलपिंडी में जन्मे भीष्म साहनी का बचपन सामान्य बच्चों जैसा नहीं था। उस वक्त देश के हर हिस्से में दंगे हो रहे थे। इनके कानों ने माँ की लोरी नहीं दंगों की चीखों को सुना। इनके बचपन पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा।

भीष्म साहनी ने लाहौर के सरकारी कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक किया। इसके वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।

भीष्म साहनी की तस्वीर

वे 1942 में गांधी जी के नेतृत्व में शुरू हुए ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में जेल भी गए। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने लाहौर में ही पढ़ाना शुरू किया। इस समय लाहौर समाज सुधार आंदोलनों का केंद्र था। कहा जाता है कि यह वह समय था, जब भीष्म के मन में समाज के लिए कुछ करने की इच्छा जागृत हुई ।

बंटवारे के दर्द को ताउम्र नहीं भूल पाए

1947 में देश के बंटवारे के बाद उन्हें पूरे परिवार के साथ भारत आना पड़ा। बंटवारे के कारण उन्हें बहुत कष्ट झेलना पड़ा। शायद यही वजह है कि जीवन भर भीष्म इस दर्द से उबर नहीं पाए। उनकी लगभग हर रचना में इसका प्रभाव देखने को मिलता है।

भीष्म का मानना था कि कहानियों के पात्र अपनी कहानी खुद कहें तो ज़्यादा बेहतर है। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में लिखा है कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि कहानी के पात्र वास्तविक हैं अथवा काल्पनिक, बस वे विश्वसनीय होने चाहिए।

उनकी ‘अमृतसर आ गया’ नाम की कहानी में उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि किस तरह आम आदमी एक झटके में हैवान बन जाते हैं। सांप्रदायिक उन्माद उन्हें कैसा इतना अंधा बना देता है कि वे एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं। इसके साथ ही उन्होंने थिएटर की दुनिया में भी कदम रखा लेकिन उन्होंने खुद को एक साहित्यकार के रूप में अधिक सहज माना।

तमस ने बना दिया अमर

कहते हैं एक साहित्यकार हमारे बीच से जा सकता है लेकिन उसकी रचनाएं उसे हमेशा जीवित रखती हैं। ऐसे ही 1974 में प्रकाशित हुए उपन्यास तमस ने भीष्म को साहित्य जगत का वो तारा बना दिया जो कभी डूब नहीं सकता है।

तमस को बंटवारे की पृष्ठभूमि पर लिखे गए सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक माना जाता है। आज भी लोग उसे पढ़ कर बंटवारे की विभीषिका का दर्द अनुभव करते हैं। ‘तमस’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

सिर्फ लिखा नहीं अपने लिखे को जिया भी

भीष्म साहनी ने अपने साहित्य से प्रेमचंद की परंपरा को आगे ले जाने का काम किया है। उनके लिए कहा जाता है कि उन्होंने ना सिर्फ लिखा, बल्कि अपने लिखे को जिया भी।

भीष्म साहनी ताउम्र साम्राज्यवाद और समाज को विभाजित करने वाली शक्तियों के खिलाफ लड़ते रहे। जीवन भर अपने सिद्धांतों और विचारधारा से कभी नहीं डिगे इतनी कामयाबी के बाद भी उन्हें किसी ने विरोधी की नज़र से नहीं देखा। वे एक तरह से अजातशत्रु रहे। आज के ही दिन 11 जुलाई, 2003 को वो सदा के लिए इस संसार को छोड़कर चले गए।

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