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लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाने वाला भारतीय मीडिया आखिर कितना आज़ाद है?

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जब भी हम किसी लोकतांत्रिक देश की बात करते हैं, तो सबसे पहले यह देखते हैं कि वहां की मीडिया का स्तर क्या है? भारत के संदर्भ में अगर इसकी बात करें तो देश में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है। इस बात से ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि 7वें सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मीडिया की भूमिका कितनी अहम है।

मीडिया पर लगती रही है सेंसरशिप

भारत को आज़ादी सन् 1947 में मिल गई थी लेकिन क्या भारतीय प्रेस को भी आज़ादी मिली? भारतीय प्रेस की बात करें, तो 18वीं सदी के अंत से ही सेंसरशिप लगना शुरू हो गया था। भारत में सबसे पहले प्रेस सेंसरशिप सन् 1795 में ‘मद्रास गजट’ पर अंग्रेजी हुकूमत द्वारा लगाई गई। उसके बाद तो मानों सेंसरशिप की बाढ़ आ गई हो।

आज़ादी के पहले हो या आज़ादी के बाद प्रेस हमेशा रोक-टोक से जूझता रहा है। 21वीं सदी में भी यह कुछ खास नहीं बदला है। कुछ बदला है तो बस खबर पाने के अलग-अलग माध्यम।

हाल ही में देखें तो जम्मू-कश्मीर में ‘नई मीडिया नीति’ इसका उदाहरण है। इस पर जम्मू और कश्मीर अपनी पार्टी के नेता गुलाम हसन मीर ने कहा कि ‘इन आर्थिक स्थितियों में प्रिंट, ऑनलाइन और इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म सहित मीडिया उद्योग की सहायता करने के बजाय, सरकार ने चौथे स्तंभ को दबाना शुरू कर दिया है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

वर्तमान में भारतीय मीडिया की स्थिति

आजकल भारतीय मीडिया एक बहस का मुद्दा बन चुकी है। मीडिया की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान खड़ा हो रहा है। जहां मीडिया का यह सामाजिक दायित्व है कि वह लोगों तक सटीक खबरें पहुंचाए लेकिन ऐसा लगता है जैसे मीडिया दो खेमे में बंट गया हो।

एक वामपंथी और दूसरा दक्षिणपंथी। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों की सूची में भारतीय प्रेस 142वें स्थान पर है। 2015 में भारतीय प्रेस 136वें स्थान पर था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में मीडिया की स्थिति क्या होने वाली है।

क्या सिर्फ पत्रकार ही हैं ज़िम्मेदार?

पत्रकारों को क्या चाहिए! बोलने की आजा़दी या सच्चाई बोलने की आज़ादी! हां, दोनों में फर्क है। आज कल देखा जाए तो बोल तो सब ही रहे लेकिन सच्चाई नहीं बोली जा रही है। अब इसे अगर डर कहें तो गलत नहीं होगा।

डर! किस चीज़ का डर? तो यहां डर है न्याय ना मिलने का। अक्सर पत्रकारों के सुरक्षा को लेकर आवाज़ उठती रही है लेकिन कहीं-ना-कहीं बार-बार यह आवाज़ दबा दी जाती है।

पत्रकारों की सुरक्षा के लिए काम करने वाली संस्था कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) ने एक रिपोर्ट जारी किया। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत दण्ड-मुक्त (जिसमें पत्रकारों कि हत्या के बाद हत्यारे खुले घूम रहें हैं) रैंकिंग में 13वें स्थान पर है। पिछले कुछ वर्षों में सुधार भी नहीं हुआ है और ना ही हालात सुधरने की कोई गुंजाइश दिख रही है।

ऐसे में सवाल यह उठता है क्या ऐसी स्थिति में कोई पत्रकार अपनी कलम की ताकत बना पाएगा जहां उसे हर वक्त बड़े तबके के लोगों द्वारा दबाया जाता हो और साथ ही मौत का डर सताता हो?

प्रतीकात्मक तस्वीर

ऐसे पत्रकार जिन्हें नहीं मिला इंसाफ

भारत में स्थिति समान्य बिल्कुल भी नहीं है। सन् 1992 से लेकर अभी तक 48 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। इसमें से केवल दो मामलों के ही आरोपी पकड़े गए हैं। 23 साल में मात्र एक हत्या पर मुकदमा चला।

गौरीलंकेश का नाम शायद ही किसी ने ना सुना हो। एक अनुभवी पत्रकार और संपादक जिनकी सन् 2017 बंगलौर में उनके घर के सामने गोली मार कर हत्या कर दी गई। इस घटना के बाद पत्रकारों के सुरक्षा पर बहस छिड़ गई लेकिन नतीजा क्या निकला?

2018 में फिर से तीन पत्रकारों की हत्या कर दी गयी। शुजात बुखारी, जो कश्मीर में रिपोर्टिंग कर रहे थे। दूसरे संदीप शर्मा, अवैध रेत खनन पर रिपोर्टिंग कर रहे थे और तीसरे नवीन निश्चल व विजय सिंह, बाल विवाह पर रिपोर्टिंग कर रहे थे। इन तीनों का अपराध था सच दिखाना।

सीपीजे ने अपने रिपोर्ट में कहा था कि पिछले एक दशक में, कम-से-कम 324 पत्रकारों को दुनिया भर में हत्या के माध्यम से चुप करा दिया गया है और इनमें से 85 प्रतिशत मामलों में किसी भी अपराधी को दोषी नहीं ठहराया गया है। यह उन लोगों के लिए एक शर्मनाक संदेश है जो हिंसा के माध्यम से सेंसर करना चाहते हैं और मीडिया को नियंत्रित करते हैं।

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