Site icon Youth Ki Awaaz

एक दलित महिला की उपलब्धि को क्यों नहीं हजम कर पा रहा है यह जातिवादी समाज?

इंसान की काबिलियत तब बहुत मायने रखती है, जब वह किसी ऐसे समुदाय से हो जिसको नीची नज़र से देखा जाता है। तब उसकी काबिलियत की वजह से मान्यता और बढ़ जाती है। हम बात कर रहे हैं टीना डाबी की, जिन्होंने 2015 में आईएएस एग्ज़ाम में टॉप किया था।

टीना डाबी पहली दलित हैं, जिसने सिविल सर्विसेज़ में टॉप किया है। हमारे समाज में आज भी दलित समुदाय को लेकर लोगों के विचार एकमत नहीं हुए। आज़ादी के 73 साल होने को हैं मगर भारत में लोगों की सोच को आज़ादी आज तक नहीं मिल पाई है।

कोई अगर ऐसे समुदाय से आता है, जिस समुदाय में खाने और मूलभूत सुविधाओं को ही पूरा कर पाना चुनौती हो, वहां से यदि कोई टॉपर बनता है तो बड़ी बात है। यूं कहें कि वह किसी भी क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन कर रहा है, तो इसमें ज़ाहिर सी बात है उस इंसान को और उसकी उपलब्धियों को सराहा जाएगा। 

टीना ब्रिक्स की अडवाइज़र चुनी गई हैं

सामान्य जाति को यह समझना होगा कि टीना का ब्रिक्स में चुनाव उनकी जाति को देखकर नहीं, बल्कि उनकी काबिलियत को देखकर हुआ है। उनका चयन इस बात पर आधारित था कि आपने 4 सालों में क्या-क्या कार्य किया? उन्होंने समाज के प्रति किन सेवाओं को अंजाम दिया। 

बहरहाल, मुझे इस बात पर दुःख ही नहीं, बल्कि शर्म भी आती है कि देश अभी भी उसी उधेड़बुन में लगा हुआ है। आखिर समाज क्यों नहीं पचा पाता कि एक लड़की भी सफलता के लिए अपनी मेहनत और लगन से आगे बढ़ सकती है। अगर वह दलित हो तो फिर ऐसा लगता है कि इन बातों को पचाना लोगों के लिए ज़हर पीने के समान है। 

दलितों के साथ समाज कब न्याय करेगा?

वास्तव में अगर देखा जाए तो आज़ादी से पहले और बाद में दलितों के साथ कभी भी न्याय नहीं हुआ है। उनको मंदिरों और विद्यालयों से हमेशा से दूर रखा गया है, ऐसा क्यों? संविधान तो हमको यही सिखाता आ रहा है कि सब एक हैं।

किसी को भी जाति, धर्म के आधार पर नहीं बांट सकते। आज जब टीना डाबी को ब्रिक्स एडवाइज़री में मेंबर के मुख्य पद के लिए चुना गया है, तो सोशल मीडिया पर गालियों और अभद्र भाषा की बाढ़ सी आ गई है। आधे से ज़्यादा लोग बस  ‘आरक्षण’ शब्द की ही पुनरावृत्ति किए जा रहें हैं।

समाज के ओछेपन का एक उदाहरण

टीना डाबी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

यदि आपके पूर्वज किसी राजघराने या किसी संस्था में जाकर साफ सफाई या कोई ऐसा कार्य करते थे जिनसे उनके हाथ गीले ना हों। हाथ गीले होने से मतलब है उनके हाथ की तरी कहीं किसी सामान पर ना लग जाए, तो उनको बागबानी की ज़िम्मेदारी दी गई। या फिर मरे हुए जानवर को उठाकर लाने जैसे कामों के लिए निर्धारित कर दिया हो।

ऐसे में उस घर के बच्चों से क्या उम्मीद की जा सकती है? शिक्षा का प्रसार कैसे मुमकिन होता? जब किसी को उसका महत्व नहीं पता होगा तो वह उसके बारे में जानेगा ही नहीं। वह अपने बच्चों को भी वही सिखाएगा जो वो खुद कर रहा है। 

ऐसे में इक्का-दुक्का लोग निकल आते हैं, जो बच्चों को विद्यालय भेज देते हैं। जब समानता का नियम लागू हुआ तो दलित समुदाय ने बच्चों को विद्यालय तो भेज दिया मगर विद्यालय जाकर कुछ सीखने के लिए उनको प्रेरित नहीं कर सके, क्योंकि वे खुद शिक्षा से दूर थे। ऐसे में दलित बच्चों की शिक्षा भी घटिया तरीके से पनपी।

उनको किसी भी प्रकार से आगे की ओर नहीं बढ़ने दिया गया। ऐसी स्तिथि में बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा जागरूकता अभियान चलाए गए।

दलितों के लिए आरक्षण

संविधान का निर्माण हुआ और दलित लोगों के लिए आरक्षण लागू हुआ ताकि वे आगे की ओर आएं। तो ऐसे में आरक्षण को एक प्रेरक के रूप में समझना ज़्यादा उचित होगा। बिल्कुल वैसे कि जब हम किसी बच्चे को कहते हैं, “आप अगर अच्छी तरह पढ़ाई करोगे तो आपको हम साइकिल दिलवाएंगे।”

बस आरक्षण भी उसी साइकिल की भांति एक प्रेरक है। अत: किसी पिछड़ी जाति को अपने समकक्ष खड़ा करने के लिए अगर सरकार ने आरक्षण दिया है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।

क्या एक महिला पर उंगली उठाना सही है?

हमारे देश के कई नेताओं से लेकर राष्ट्रपति तक दलित समुदाय से सम्बंध रखते हैं। ऐसे में आप किसी को ट्रोल करके उसके मनोबल को क्षीण करना चाह रहे हैं। भारत में वास्तविकता को बदलने में लंबा समय लगेगा लेकिन मैं स्टूडेंट्स से यही कहना चाहता हूं कि संविधान में विश्वास रखिए। 

दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता यह है कि भारत अभी भी जातिवादी है। दलितों के खिलाफ बहुत से अपराध सामने आए हैं। राजस्थान के नागौर में 2 दलितों को बुरी तरह से घायल करने का मामला सामने आया। उसके गुप्तांग में पेचकस और कपड़ा डालने जैसी क्रूरतम कृति सामने आई। हैदराबाद में दलित स्टूडेंट रोहित वेमुला की आत्महत्या और ऊना में दलितों की बदहाली को कौन भूल सकता है?

समाज को दलित समुदाय के साथ खड़े होने की आवश्यकता है 

टीना डाबी के साथ वर्ष 2015 से अब तक ना जाने कितने ही ऐसे इल्ज़ाम लगाए हैं कि आप तो दलित हैं, इस वजह से आपको टॉपर बनने का मौका मिला। इस देश की बेटी की सराहना तो बिल्कुल शून्य कर दी गई मगर अवहेलना शायद उम्मीद से ज़्यादा ही की गई, जो यही दर्शाती है कि समाज की सोच कितनी घिसी पिटी है। 

आज जब वह देश में ब्रिक्स जैसी नामी संस्था के साथ कार्य करने जा रही हैं, तो उनको बधाई देने के बजाए लोग उनके सरनेम और उनकी जाति को लेकर ट्वीट कर रहे हैं। आप किसी जाति की आड़ में किसी की मेहनत पर पानी फेरने की कोशिश कर रहे हैं।

लोग अपने-अपने संविधान बना रहे हैं। चाहे वह सरकार हो या हमारा समाज। संविधान के एक भी अधिकार को कागज़ों से बाहर उपयोग नहीं किया जा रहा, जो बहुत ही अन्यायपूर्ण है। मुझे दुःख है कि मैं ऐसे समाज का हिस्सा हूं।

Exit mobile version