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क्या ‘नई शिक्षा नीति’ शिक्षा के बाज़ारीकरण की ओर एक कदम है?

दो दिन पहले सोशल मीडिया पर देश के वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम पर गर्व कर रहा था। भारत सरकार ने जो नई शिक्षा नीति जारी की है, वह देश के बच्चों के अब्दुल कलाम बनने के सारे रास्ते बंद कर देगा। इसपर एक अनोखी चुप्पी पसरी हुई है।

क्या नई शिक्षा नीति ‘शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है’ की अवधारणा के विरुद्ध है?

नई शिक्षा नीति का पहला बहुचर्चित आयाम है कि छठीं क्लास से वोकेशनल कोर्स शुरू किए जाएंगे, इसके लिए इच्छुक छात्रों को छठी क्लास के बाद से ही इंटर्नशिप करवाई जाएगी। ऐसे में सवाल यह है कि कौन-सा बच्चा छठीं क्लास में ही यह तय कर पाता है कि उसे आगे क्या पढ़ना है या उसको पढ़ाई छोड़कर अपना प्रोफेसन चुन लेना चाहिए, पढ़ाई-लिखाई अब उसके बस का नहीं है।

नई शिक्षा नीति उस अवधारणा के विरुद्ध है कि शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है। इसी के तहत शिक्षा का अधिकार कानून बना था ​ताकि 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए सरकार मुफ्त शिक्षा सुनिश्चित करे।

प्रतीकात्मक तस्वीर

क्या सरकार वह रास्ता बंद करना चाहती है, जहां किसी गरीब का बच्चा पढ़-लिखकर आगे जाता है? आप कह रहे हैं कि जब चाहें पढ़ाई छोड़ सकते हैं, डिप्लोमा दे देंगे। क्या कोई पढ़ाई मर्ज़ी से छोड़ता है या मजबूरी में छोड़ता है, उसमें आर्थिक मजबूरी सबसे बड़ी होती है।

मजबूरी में जो मां-बाप अपने बच्चों को काम पर लगा देते हैं, सरकार से उम्मीद होती है कि उन्हें बाल मज़दूरी से निकाल कर उनकी पढ़ाई लिखाई और गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करे। इसके लिए शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार जैसे कानून बनाए गए हैं, तो क्या अब बच्चों को कानूनी रूप से मज़दूरी की तरफ धकेला जाएगा?

क्या समृद्ध लोगों के लिए ही है नई शिक्षा नीति?

नई शिक्षा नीति को पढ़ने-समझने के बाद यही लगता है कि यह समृद्ध तबकों के लिए संभावनाओं की सड़क को और अधिक चौड़ा कर देगी। जिनके पास पैसा होगा उसके विकास की संभावनाएं खुली जाएंगी। वंचित तबकों के लिए जो आर्थिक रूप में आत्मनिर्भर नहीं हैं, तो छठी क्लास से ही स्किल डेचलपमेंट के लिए वोकेशनल कोर्सेज की शुरूआत की जाएगी।

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कह सकते हैं कि इसके ऊपर महात्मा गांधी की नई तालीम शिक्षा नीति की छाया भी है। यह शिक्षा नीति हमारे समाज के बदलते अक्स का नया आईना है। अवसरों की छीना-झपटी को रोकने के लिए संभावनाओं को वहां तक पहुंचने ही ना दो।

फिर ताकतवर वर्गों का बढ़ता एकाधिकार कहीं-न-कहीं शिक्षा की उस अवधारणा को भी बदल देगा जो सुपर 30 फिल्म में आनंद कुमार के रूप में अभिनेता श्रृतिक रोशन ने दिया, “अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा, राजा ऊ बनेगा जो काबिल होगा।”

शुरूआती शिक्षा का माध्यम को अनिवार्य रूप से मातृभाषा में बनाया जाना कितना ठीक?

नई शिक्षा नीति में दूसरा बहुप्रचारित आयाम कि पांचवी क्लास तक की शिक्षा का माध्यम अनिवार्य रूप से मातृभाषा को बनाया जाएगा और आठवीं क्लास तक इस माध्यम को ही प्रोत्साहित किया जाएगा।

ऐसे में निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग के अभिभावक आखिर यह कैसे सहन कर पाएंगे कि बच्चों की महंगी स्कूल फीस जुटाने के बाद वह उस भाषा में बिल्कुल ही व्यवहारिक ना हो जिस भाषा में देश-दुनिया की पूरी की पूरी कार्य संस्कृति चल रही है।

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यह मामला केवल टू वंजा टू, टू टूजा फोर के बदले दो एक्का दो, दो दूनी चार का नहीं है। जब बाज़ारी अर्थव्यवस्था का सारा चलन ही एक दूसरी भाषा में स्थापित है, तो उस बच्चे के सर्वांगीण विकास में मातृभाषा या स्थानीय भाषा कैसे सहायक हो सकती है?

शिक्षा शास्त्रीय तथ्य, विभिन्न आयोगों की रिपोर्ट्स, बच्चों की भावनात्मक कठिनाइयां, सांस्कृतिक अंतर्विरोध आदि के सवाल एक तरफ और करियर में अंग्रेजी की असंदिग्ध महत्ता की स्थापना दूसरी तरफ। ज़ाहिर है कि अंग्रेज़ी के प्रति भारत के अधिकतर हिस्से का मनोविज्ञान इस कारण बहुत प्रभावित हुआ है। तब क्या स्थानीय और मातृभाषा में शिक्षण व्यवस्था की बैंड नहीं बज जाएगी।

कम उम्र में ही बच्चों की पढ़ाई शुरू करवाना कितना ठीक?

नई शिक्षा नीति में बच्चों की शुरूआती शिक्षा की आयु सीमा को पांच वर्ष से घटाकर तीन वर्ष कर दिया गया है। आंगड़बाड़ी सहायिका जिनके ज़िम्मे अब तक नर्सिग और बच्चों के खान-पान संबंधी जागरूकता का जिम्मा था।

कम आयु के बच्चों को शिक्षित करने से अधिक संभालने की ज़रूरत होती है, जिसके लिए आंगनवाड़ी के बच्चों को औपचारिक शिक्षा संरचना में लाने की बातें की गई हैं, जिसपर पहले से ही तय बजट का हिस्सा खर्च होता रहा है।

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इसके लिए आंगनबाड़ी सहायिका को प्रीलर्निंग ट्रेनिग की भी आवश्यकता होती है। देश में प्राइमरी लर्निंग बी.एड और ट्रेनिंग का आधारभूत ढ़ांचा बहुत बेहतर नहीं है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि देश में अधिकाश अभिभावक अपने बच्चे को तीन-चार साल के उम्र से ही खेल के साथ पढ़ाने के लिए स्कूल भेजने लगे हैं।

शहरी और महानगरों में यह बेहतर तरीके से काम भी करता है लेकिन ग्रामीण इलाकों के साथ सरकारी स्कूल में कई कारणों से यह उतने बेहतर तरीके से काम नहीं करता है।

शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी सच में खर्च किया जाएगा?

नई शिक्षा नीति में एक बात को बहुत अधिक प्रचारित किया जा रहा है कि इसमें जीडीपी का 6 फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च किया जाएगा। 6 फीसदी का यह जादुई आंकड़ा जिस अंकगणित से छुने की कोशिश की जाएगी, उसमें भी बहुत चतुराई का सहारा लिया गया है।

बहरहाल यह देखने के लिए अगले बजट का इंतज़ार करना होगा, जिसमें यह जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च होता है या नहीं, यह देखना होगा। सरकारी संस्थानों को स्वायत्त बनाने के प्रयासों को लें, तो नई शिक्षा नीति बीते दशकों से चली आ रही शिक्षा के कॉरपोरेटीकरण की प्रक्रिया में लंबी छलांग है और कुछ नहीं।

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