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क्या महात्मा गाँधी की विचारधारा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है?

जहां विकास नहीं, जहां विश्वास नहीं, जहां सिद्धांत या नियम कानून का कोई खौफ नहीं, वहां गौरव कहां मिलेगा। “इसे हम आज का भारत कह सकते हैं।”

गाँधी जी के राजनीतिक, नैतिक तथा राज्य के समर्थन के कारक उनके अध्ययन और व्यवहार का केन्द्र रहें हैं। उनके विचार मूल रूप से भारतीय सभ्यता के स्त्रोतों से रहे हैं।

उनकी विचारधारा का मार्ग उन्हें परम्परागत संविधानवादियों से दूर रखते हैं। साथ ही स्वतंत्रता से जुड़े क्रांतिकारी तत्वों से भी अलग स्थान प्रदान करते हैं।

चरखा चलाते हुए महात्मा गाँधी

सर्वोत्तम साहस अहिंसा है

सत्य की खोज में मनुष्य का धार्मिक उत्तरदायित्व उनके राज्य के प्रति राजनीतिक कर्त्तव्यों से ऊपर है। गाँधी जी के अनुसार, आंतरिक प्रर्दशन में सर्वोत्तम साहस अहिंसा है जो अंतिम सत्य के बिल्कुल निकट होता है।

गाँधी जी का चिंतन था कि एक पूर्ण अहिंसक समाज संघात्मक होगा जिसमें छोटी इकाइयां स्वशासित और आत्मनिर्भरता पर अधारित होकर नैतिक तथा सामाजिक प्रभाव में कार्य करेंगी।

व्यक्ति का अंतिम उद्देश्य सत्य की प्राप्ति

गाँधी जी के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का अंतिम उद्देश्य सत्य की प्राप्ति होता है लेकिन हमारे देश में आज की जो स्थित है उसमें कहीं-न-कहीं लोगों की विचारधारा गुम होती दिखाई दे रही है। जिसको कई मायनों में देखा जा सकता है।

गाँधी जी का कहना था कि देश को बदलने के लिए, लोकतंत्र को बचाने के लिए और शांति स्थापित करने के लिए जनता के बीच विश्वास यानी कि भरोसा बनाए रखना राजनेता का सबसे पहला कदम होता है।

जो इस देश में कहीं गुम हो चुका है, क्योंकि इस देश में एक राजनेता का बेटा ही नेता बनता है। अगर जनता के बीच उसका भरोसा जीतने वाला खड़ा होता है तो उसे एक पार्टी की पूरी टीम के द्वारा बड़े-बड़े न्यूज़ चैंनलों पर बैठ कर देशद्रोही बता दिया जाता है। यही नहीं उसे गलत राजनीति का शिकार भी बना दिया जाता है।

महात्मा गाँधी की तस्वीर

शासन पर गहन बौद्धिक बहस और समय-समय पर पुन: मूल्यांकन का महत्व

महात्मा गाँधी के राजनीतिक और शासन से सम्बन्धित मसले पर गहन बौद्धिक बहस और समय-समय पर पुन: मूल्यांकन हमेशा अहम विषय रहा है। गाँधी जी की विचारधारा से जुड़े कई शब्द हैं जो आज के भारतवर्ष की कमी की व्याख्या करते हैं। कई शब्द हैं जिसके मायने हमारे जीवन से लापता हो चुका हैं।

इन शब्दों को हम इंसान के तौर पर भी व्याख्या करते हैं, जैसे एकता, यह हिन्दु है या मुस्लमान कहना मुश्किल है। कुछ लोग हैं जो कपड़ों से लोगों की पहचान कर सकते हैं लेकिन एकता के मामले में यह इतना आसान भी नहीं है। यह कभी घुघंट डालती, कभी हिजाब, कभी जींस-कुर्ता, कभी सलवार कमीज़, कोल्हापुरी चप्पल, आंखो में काजल, एकता कहीं से लौट आए बस हम अपने देश में यही उम्मीद कर सकते हैं।

भाईचारा और सुरक्षा हो चुकी है लापता

हमारे देश में भाईचारे के साथ-साथ सुरक्षा भी कहीं लापता हो चुकी है। इसके कई कारण हैं, जब पुलिस उन लोगों को पीटती है जिन लोगों की हिफाज़त करने की ज़िम्मेदारी पुलिस की होती है।

हमें उम्मीद रहती है कि उसूल और नियम कानून के तहत काम होगा। सिद्धांत जिसका ख्याल रखते हुए हमारी सरकार चलनी चाहिए लेकिन देश की स्थिति को देखकर यही लगता है कि सिद्धांत कहीं लापता हो चुका है।

जब शांतिपूर्ण प्रर्दशनकारी गिरफ्तार किए जा रहे हैं, जब उनके साथ पुलिस हिरासत में हफ्तों तक ज़्यादती होती रहती हैं और फिर कोई आरोप नहीं होने के कारण वे छोड़ दिए जा रहे हैं। जब खुलेआम ज़हर उगलने वाले मुख्यमंत्री से लेकर सांसद, विधायक को कोई हाथ तक नहीं लगाता, तो समझ में आ जाता है कि सिद्धांत यानी आदर्श को ढूंढना बेईमानी है।

खुशहाली और विकास तो लंबे समय से कहीं लापता हैं। जीडीपी ग्रोथ गिरता जा रहा है। ‘विकास’ को ढूंढना तो वैसे भी मुश्किल होता जा रहा है। लोगों को सरकार से हमेशा शिकायतें रही हैं। व्यापारी, युवा, किसान, नौकरी पेशा लोग सभी जानना चाहते हैं विकास कहां है?

देश में यह सभी शब्द कहीं लापता हो चुके हैं जिसपर सरकार को ध्यान देने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

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