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स्कूल में सभी मानते थे अछूत, आज स्वीडिश सरकार में हैं आर्ट अडवाइज़र

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।

अल्लामा इक़बाल के इस शेर को हमारे देश के शेरों ने हकीकत में बदल दिया है। आज हम बात करेंगे डॉ. पी. के. महानंदिया की जिनका पूरा नाम है प्रद्युम्न कुमार महानंदिया। देश का एक दलित लड़का, जो अब स्वीडिश सरकार के लिए आर्ट एडवाइज़री के रूप में नियुक्त है।

आज उनकी यादों और उनके महत्वपूर्ण सफर को ताज़ा करने के लिए एक ट्विटर यूज़र, विवा फलास्टिन ने ट्विट्स की एक श्रृंखला में डॉ. पीके महानंदिया की उत्साहजनक कहानी साझा की है।

उन्होंने लिखा, “डॉ. पीके महानंदिया से मिलो। एक दलित, जो भारत के पूर्वी जंगलों में पैदा हुआ था। जब उन्होंने स्कूल जाना शुरू किया, तो उनके शिक्षकों ने उन्हें बताया कि उन्हें अन्य स्टूडेंट्स के बगल में बैठने की अनुमति नहीं है। अन्य स्टूडेंट्स ने उन्हें कभी ना छूने की हमेशा से कोशिश की क्योंकि वो एक दलित परिवार से आते हैं। उन्होंने उस दिन महसूस किया कि अछूत होने का क्या मतलब है।”

कम पड़ जाते थे छात्रवृति के रुपये

स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। स्कूली शिक्षा के बाद उन्होंने सन् 1971 में दिल्ली के कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला लिया। उन्होंने अपनी शिक्षा ललित कला दिल्ली में छात्रवृत्ति के साथ अपना अध्ययन शुरू किया।

छात्रवृत्ति के रुपये इतने नहीं थे कि वो अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। नौकरी के क्षेत्र में भी उनको कोई सफलता हासिल नहीं हुई, क्योंकि वो एक दलित परिवार से आते थे। इस कारण उन्होंने काफी भेदभाव का सामना किया। उनकी ज़िंदगी के किस्से भी कम रुचिकर नहीं थे।

अखबार ने जब महानंदिया को जंगल का आदमी कहकर संबोधित किया

एक बार किसी समारोह में उनकी मुलाक़ात USSR की पहली महिला रशियन अंतरिक्ष यात्री वेलेंटीना टेरेशकोवा से हुई। महानंदिया ने बहुत ही जल्दी से उनका स्केच बनाया और उनको तोहफे के रूप में दे दिया। अगले दिन की सुबह सभी अखबारों में यही सुर्खियां थीं, “स्पेस की महिला की एक जंगल के आदमी से मुलाक़ात।”

उस समय इंदिरा गाँधी इस बात से काफी प्रभावित हुईं और उन्होंने उनको अपना स्केच बनाने का अवसर दिया। वह कनॉट प्लेस में एक फव्वारे के नीचे बैठकर भारत की एक कर्मठ और महान महिला ‘इंदिरा गाँधी’ जी का स्केच बनाया जिसने काफी पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींचा।

महानंदिया की प्रेम कहानी काफी दिलचस्प रही

इनके प्यार की कहानी भी बहुत रोचक रही। 17 दिसंबर 1975 को उनकी मुलाकात एक स्वीडिश लड़की शार्लोट वॉन शेडिन से हुई। वह 22 दिन की यात्रा करके दिल्ली पहुंची थी। दोनों को एक-दूसरे से प्रेम हो गया। शार्लोट कुलीन वर्ग से राब्ता रखती थीं और महानंदिया एल दलित परिवार से थे। केवल 3 दिनों में दोनो ने ओडिशा जाकर शादी कर ली। शेर्लोट को अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए स्वीडन के लिए रवाना होना पड़ा। इस दौरान दोनों ने एक दूसरों को पत्र लिखकर अपनी दूरियों को कम किया।

कई साल दूर रहने के बाद महानंदिया ने महसूस किया कि इस रिश्ते को काफी दिन हो गए हैं, फिर उन्होंने स्वीडन जाने का फैसला लिया। उन्होंने अपना सब कुछ बेच दिया और एक सेकंड हैंड साईकिल खरीदी। यहां से निकलने के बाद महानंदिया ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। डॉ पीके महानंदिया को गुटेनबर्ग जाने और अपनी पत्नी के साथ पुनर्मिलन करने में पांच महीने लगे।

लंबी है संघर्ष की दास्तान

वो अब स्वीडन में रहते हैं और एक कलाकार के साथ-साथ स्वीडिश सरकार के लिए कला और संस्कृति के सलाहकार के रूप में काम करते हैं। महानंदिया ने यह उपाधि पाने के लिए कम संघर्ष नहीं किया।

वहीं, अगर यही संघर्ष कर के वह भारत में रुक जाते तो आज या तो जूते सही कर रहे होते या फिर कहीं फल और सब्ज़ियों की रेहड़ी लगाते हुए मिलते। वो तो भला हुआ उस मुहब्बत का जो उनको खींचकर सात समुद्र पार ले गई।

एक ऐसे देश में जहां जातिवादी शब्द कहीं से कहीं तक नहीं मिलता। जहां आपके अनुभव और आपके हूनर की कद्र की जाती है। जहां छुआछूत है ही नहीं और सभी एक समान हैं।

वहीं, भारत में एकता का नहीं, बल्कि धर्मवाद और जातिवाद का बोलबाला है। यहां आज भी दलितों को जानवरों से ज़्यादा बदतर माना जाता है। महानंदिया जैसे हज़ारों ऐसे लोग हैं हमारे भारत में जिनके हूनर और काबिलियत की कोई एहमियत नहीं है। वजह सिर्फ यही कि वे “दलित” हैं।

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