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गंदगी से भरे इलाके में रहने पर आखिर क्यों मजबूर हैं मुस्लिम समुदाय के लोग?

पिछले साल शाहीन बाग का नाम दुनिया के अधिकाशं हिस्सों में गूंजता रहा। खैर, देश की राजधानी दिल्ली के ओखला जामिया नगर में यमुना किनारे तथा दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाली सड़क के समीप शाहीनबाग स्थित है।

शाहीनबाग, अबुल फज़ल, नई बस्ती, बटला हाउस, गफ्फार मंज़िल या ज़ाकिर नगर आदि स्थानों पर अधिकतर पूर्वी-पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बिहार तथा झारखंड आदि प्रदेशों के मुस्लिम समुदाय बड़ी संख्या में रोज़गार या शिक्षा आदि के लिए रहते हैं।

खैर, भारत की राजधानी में स्थित शाहीनबाग की तंग सड़कों को देखकर नहीं लगता है कि किसी देश की राजधानी में यह स्थिति है। टूटी सड़कें, खुली नालियां, नालियों के ऊपर से बहता पानी, सड़कों के दोनों तरफ पड़े कचड़े, ऊपर से जाता हाईटेंशन का तार, ठीक उसी के नीचे विभिन्न पकवानों के होटल मिल जाएंगे।

शाहीनबाग के इलाकों में आधिकतर दिहाड़ी मज़दूर रहते हैं

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

आपने अक्सर सुना होगा जिस मोहल्ले में ज़्यादा गंदगी देखने को मिलती है, ज़हन में पहला सवाल आता है कि क्या ये मुसलमानों का इलाका है? आखिर क्यों? ऐसे सवाल मन में उठते हैं? सच कहूं तो मुसलमान ऐसी जगहों पर रहने के लिए मजबूर हैं। महंगाई के इस दौर में उनकी मजबूरी बन चुकी है एसी जगहों पर रहना।

खैर, भारत में कोरोना वायरस तेज़ी से फैल रहा है। लगातार बढ़ते मामले चिंता की बात हैं लेकिन इस बीच भारत सरकार ने आर्थिक गतिविधियों के लिए बाज़ार खोलने का निर्णय लिया है। डर की वजह से लोग अभी भी अपने घरों से बाहर नहीं निकल रहे हैं। इस वैश्विक महामारी में सबसे ज़्यादा त्रस्त दिहाड़ी मज़दूर हैं।

नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के अध्ययन के मुताबिक, प्रत्येक चौथा मुसलमान गरीब है। देश में मुसलमानों की आर्थिक स्थिति ज़्यादा दयनीय है। नैशनल काउंसिल फॉर अप्‍लायड इकोनॉमिक की एक रिसर्च के मुताबिक, शहरी इलाकों में हर 10 में से 3 मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन गुजर बसर करने पर मजबूर है।

ग्रामीण इलाकों में हालात और भी खस्ता हैं। यहां हर पांचवां मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे है। फिर भी इन आकड़ों को देखकर “अदम गोंडवी” जी का एक शेर याद आता है।

     तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

      मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।

मेरा मकसद बिलकुल यह नही है कि मैं सरकार को आईना दिखाऊ। अब इस बात पर मंटो भी याद आ गए। 

मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है।

शाहीनबाग का ज़िक्र क्यों?

मैं शाहीन बाग का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि यह भारत की राजधानी में बसा है। इससे आप बखूबी गाँव में रहने वाले लोगों की गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, रूढ़िवादिता और आधुनीकरण की कशमकश में पिसती मुस्लिम पीढ़ी का अनुमान बहुत आसानी से लगा सकते हैं।

इसमें कोई भी दो राय नहीं है कि आज के मुसलमान तकनीकी और राजनीतिक आदि रूपों में पिछड़े हुए तथा हाशिए पर खड़े दिखाई देते हैं। 

सच्चर कमेटी मुसलमानों की ज़मीनी हकीकत को कुछ हद तक रुबरु करती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मुस्लिम माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल तो भेजना चाहते हैं लेकिन गरीबी की वजह से इनके बच्चे स्कूल में नहीं टिक पाते हैं।

खासकर, मुस्लिम लड़कियों का और भी बुरा हाल है। सभी वर्गों की तुलना में “स्कूल ड्रॉप आउट रेट” मुस्लिम स्टूडेंट्स में अधिक दिखाई देता है। मेरी शिकायत दरअसल उन माफिया मज़हबी रहनुमाओं से है, जो समाज के लोगों को ज़कात और सदके का सही प्रयोग करना नहीं बताते हैं।

ज़कात के नाम पर निकलने वाला करोड़ों रुपया कहां जा रहा है?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आप अगर मुस्लिम सामुदाय से हैं तो आप खुद अपने मोहल्ले से अनुमान लगा सकते हैं कि कितने हज़ार की ज़कात आपके आसपास से निकल रही है लेकिन सवाल पैदा होता है कि ज़कात, सदके, खैरात और फितरे आदि के नाम पर निकलने वाला करोड़ों रुपया कहां जा रहा है?

इन रकम के ज़रिये बेबस लाचार मुस्लिम समाज को आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से मज़बूत बनाने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही है? फिर ऐसी ज़कात निकालने का क्या फायदा जो अपने ही सामुदाय के गरीब-गुरबा के वर्तमान तथा भविष्य को ना बना सके?

दिल्ली के जामिया नगर से अगर मैं ज़कात के पैसे का अनुमान लगाऊं तो यह कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि इस इलाके से 40 से 50 लाख की रकम निकलती होगी। अफसोस इन पैसे का प्रयोग आधुनिक शिक्षा के मैंदान में देखने को नहीं मिलता है।

मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूं कि इस क्षेत्र में बिलकुल भी काम नहीं हो रहा है। मैं मौलाना आज़ाद शिक्षा फाउंडेशन आदि की मिसाल देता हूं लेकिन अधिकतर लोगों को जानकारी का आभाव होने के कारण ज़रूरतमंद ऐसी योजनाओं से महरूम हो जाते हैं।

ज़कात, सदके, खैरात, फितरे के नाम पर निकलने वाला करोड़ो रुपये में पारदर्शिता होना अनिवार्य है। इसी पारदर्शिता के आधार पर नए आधुनिक स्कूल अस्पताल बनवाकर सुव्यवस्थित क्रमबद्ध ढंग से मुस्लिम समुदाय कम-से-कम अपने आसपास गरीबी को मात तथा समाज को उम्मीद की नई किरण के साथ जोड़ सकते हैं।

ऐसी ना जाने कितनी अल्पसंख्यक समुदाय की बस्तिया होंगी जो वर्षो वर्ष से अपना दामन फैलाए विकास का इंतज़ार कर रही होंगी।

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