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पीरियड्स से जुड़े कुतर्कों और अंधविश्वासों के कारण कैसे महिलाओं को होता है इंफेक्शन

Periods Story

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राजस्थान के बूंदी ज़िले के तालेड़ा ब्लॉक की 12 ग्राम पंचायतों के क्षेत्र को बरड़ क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र बूंदी ज़िला मुख्यालय से 50 कि.मी. दूर दक्षिण पश्चिम दिशा में चित्तौड़गढ़ और भीलवाड़ा ज़िले की सीमा से लगा हुआ है। यह इलाका बंजर, पथरीला एवं खनन क्षेत्र में आता है।

यहां खदानों में भारत के अलग-अलग राज्यों से लोग काम करने आते हैं। इस कारण बरड़ क्षेत्र को मिनी भारत भी कहा जाता है। डाबी कस्बे को बरड़ की हृदय स्थली कहा जाता है।

यह वही स्थान है जहां बूंदी किसान आंदोलन के दौरान 13 जून 1922 को डाबी के तालाब पर किसान सभा में अंग्रेज पुलिस अधिकारी द्वारा गोलियां चलाने से आदिवासी क्रांतिकारी नानक भील शहीद हो गए थे। इनकी पुण्यतिथि पर हर वर्ष ज़िला प्रशासन द्वारा विशाल आदिवासी विकास मेला लगता है।

महावारी पर चुप्पी तोड़ रही है लड़कियां

इसी पावन भूमि से एक बार फिर बदलाव की बयार उठने लगी है। इस बार बदलाव क्षेत्र की किशोरियों द्वारा शुरू किया गया है। जिन्होंने माहवारी जैसे महत्वपूर्ण विषय पर अपनी चुप्पी तोड़ी है।

इलाके की किशोरियां स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से ना केवल महिला स्वास्थ्य और यौन हिंसा पर खुलकर अपनी बात रख रही हैं, बल्कि माहवारी से जुड़े मिथ्यों को तोड़ कर आगे भी बढ़ रही हैं।

जगारूकता अभियान के दौरान कुछ लड़किया तस्वीर साभार: YKA यूज़र्स

बरड़ क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर संचालित सामाजिक संस्था शिव शिक्षा समिति रानोली, टोंक द्वारा पीएफआई के सहयोग से फाया परियोजना (फेमिनिस्ट यूथ लीड एक्शन) संचालित की जा रही है। यह परियोजना क्षेत्र की 15 ग्राम पंचायतों के 50 गांवों में चलाई जा रही है। इससे तक़रीबन 3000 किशोर और किशोरियां जुड़े हुए है। परियोजना से जुड़ने के बाद किशोरियां माहवारी से जुड़ी भ्रांतियों को लगातार तोड़ रही है।

जी, हां ‘माहवारी’ शायद यही वह शब्द होगा जिसे आमतौर पर बहुत कम लोग सुनते होंगे या दो-चार लोगों के बीच आपने यह शब्द बोल दिया, तो आपको तुरंत टोक भी दिया जाएगा। आखिर ऐसा क्यों है? शायद इसलिए कि प्राचीन रूढ़िवादी परंपरा के तहत लोग इसे गंदा मानते हैं।

कुतर्कों और अंधविश्वास के कारण महिलाओं होती हैं इंफेक्शन का शिकार

रूढ़िवादी समाज में आज भी इस विषय पर बात करना तक गलत समझा जाता है। कई जगह तो इसे पिछले जन्म में किए गए किसी पाप से जोड़कर भी देखा जाता है। आज भी जब किसी महिला को माहवारी आती है, तो उसे रसोई में प्रवेश तक नहीं करने दिया जाता और उसके साथ ऐसा व्यवहार होता है, जैसे उसने कोई अपराध कर दिया हो।

पता नहीं वह कौन-सा तर्क था जिसमें यह बताया गया था कि माहवारी में महिलाओं द्वारा उपयोग किए गए कपड़े को अंधेरे में सूखाना चाहिए। यदि उसे पुरुष देख ले तो वह अंधा हो जाएगा।

इस कुतर्क से पुरुष तो अंधे नहीं हुए लेकिन उन महिलाओं की ज़िंदगी ज़रूर खराब हो गई जिन्होंने उस कुतर्क को सच मान कर इस गलत परंपरा की शुरुआत कर दी। जबकि हकीक़त में यह सब बातें माहवारी पर उनकी कम जानकारी के कारण मात्र है।

इसी गलत परंपरा के निर्वहन के कारण आज ग्रामीण क्षेत्र की लगभग हर परिवार में महिलाएं फंगल इंफेक्शन, ल्यूकोरिया आदि किसी-न-किसी संक्रमण की शिकार हैं।

बरड़ क्षेत्र आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। इसकी कुल जनसंख्या तकरीबन 65,205 है। जिसमें 33,945 पुरुष और 31,260 महिलाएं हैं। इस क्षेत्र में पुरुषों की साक्षरता दर 65.81 प्रतिशत है जबकि महिलाओं की महज़ 34.91 प्रतिशत है। यह महिला साक्षरता के प्रति लोगों की उदासीनता को साफ दर्शाता है।

यहां दूर-दराज के क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के सरकारी योजनाओं की जानकारियों का अभाव है लेकिन ऐसे ही अभाव ग्रस्त गांवों की किशोरियों के लिए आशा की किरण बनकर आई है शिव शिक्षा समिति द्वारा संचालित फाया परियोजना।

महावारी को लेकर समाज को जागरूक होने की है सख्त ज़रूरत

इस परियोजना की समन्वयक आराधना सिंह बताती है कि किशोर-किशोरियों को व्यापक यौनिकता शिक्षा से जुड़ी जानकारी देने के लिए अप्रैल 2019 से कुल चार मॉड्यूल संचालित किए जा रहे हैं।

पहले मॉड्यूल के तहत जहां किशोर-किशोरियों को युवावस्था से लेकर उनके अधिकारों से परिचित कराया जाता है, वहीं दूसरे मॉड्यूल में ‘मैं और मेरी पहचान’ के अंतर्गत समाज में महिला और पुरुष के अधिकारों और उनके व्यवहारों से परिचित कराया जाता है।

इस मॉड्यूल में तीसरे लिंग यानी ट्रांसजेंडर के प्रति समाज के दृष्टिकोण और वास्तविकता के बारे में भी सिखाया जाता है, ताकि आगे चल कर समाज की बागडोर संभालने वाले यह युवा तीसरे लिंग के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखें।

तीसरे मॉड्यूल के अंतर्गत ‘मैं और मेरे रिश्ते में किशोर-किशोरियों को सामाजिक रिश्ते तथा यौन आकर्षण से परिचित कराया जाता है जबकि चौथे मॉड्यूल के तहत उन्हें ‘मैं और मेरा स्वास्थ्य’ से परिचित कराया जाता है। इसमें उन्हें स्वास्थ्य संबंधी विषयों और साफ़ सफाई से जुडी बातें भी सिखाई जाती हैं।

जागरूकता अभियान से आ रहा है बदलाव

आराधना सिंह के अनुसार, प्रथम मॉड्यूल समाप्त होने के बाद किशोरियों में काफी बदलाव आया है। पहले माहवारी पर बात करने में किशोरियों को झिझक होती थी। इस विषय पर उन्होंने चर्चा होते कभी नहीं देखी, ना कभी उनके घर-परिवार में माहवारी पर बात होती थी।

शुरू के सत्रों में जब भी माहवारी पर बात होती थी तो किशोरियां अपना सिर नीचे झुका लेती थीं लेकिन सत्रों के दौरान उन्हें चित्रों के माध्यम से माहवारी आने की पूरी प्रक्रिया समझाई गई।

उन्हें बताया गया कि माहवारी प्राकृतिक है। इस दौरान आने वाला खून गंदा नहीं होता है। इसमें शर्म वाली कोई बात नहीं है। इस दौरान हम रसोई में खाना भी बना सकते हैं, अचार को भी हाथ लगा सकते हैं और अन्य दिनों की तरह अपनी दिनचर्या के सारे काम भी कर सकते हैं।

किशोरियों के लिए इस प्रकार के सत्र बहुत लाभदायक साबित हुए हैं। माहवारी पर अब ना केवल उनकी झिझक दूर हुई है, बल्कि कल तक जो किशोरियां पैड/सैनिटरी नैपकिन का नाम तक नहीं जानती थीं। आज वह माहवारी के दौरान उसका उपयोग करने लगी हैं और अब माहवारी पर खुलकर बातें भी करने लगी हैं।

जब उन्हें सैनेट्री पैड की आवश्यकता होती है तो वह बिना झिझक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता से मांग लेती हैं। किशोरियों को अब माहवारी से जुड़ी या और कोई समस्या भी होती है, तो वह राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम (RKSK) द्वारा संचालित उजाला केंद्र में जाकर काउंसलर से सलाह भी लेने लगी हैं। वास्तव में किशोरियों में आने वाला यह बदलाव सभ्य और शिक्षित समाज के निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।

सुरेश कुमार भील

बूंदी, राजस्थान

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