Site icon Youth Ki Awaaz

“महिलाओं पर हुक्म चलाने वाली घर-घर की मानसिकता बयां करती फिल्म थप्पड़”

thappad

thappad

पितृसत्ता! साधारण शब्दों में इसे ‘पिता का शासन’ यानी कि मर्दों का शासन कहते हैं। इसमें महिलाओं का क्या स्थान हुआ? एक अबला नारी, समाज में पिछड़ी हुई एक असहाय शक्ति? हां, शायद हर दूसरा पुरुष यही सोचता है मगर मैं नहीं, बिल्कुल भी नहीं। मेरा मानना है कि महिलाएं पुरुषों से अधिक बलशाली और निष्ठावान भी हैं।

घर की महिलाओं पर पुरुष बाहर का क्रोध उतारता है

किसी भी धर्म के चश्मे से देखने पर चीज़ें एक ही रुप में दिखाई पड़ती हैं। अपने परिवार में ही देख लीजिए, जहां महिला चाहे कितनी भी ऊंचाइयों पर क्यों ना हो मगर पुरुष उसे नीचा दिखाने से कतराते नहीं हैं। अक्सर देखा जाता है पुरुष कहीं से भी किसी से लड़कर या क्रोधित होकर घर आने पर इसका गुस्सा वे अपनी पत्नी, माँ या बहन पर दिखाते हैं।

आजकल का तो चलन ही चल पड़ा है पुरुष अपनी ताकत महिलाओं पर आज़माते हैं। यह प्राकृतिक विडंबना नहीं है और ना ही किसी धर्म में ऐसा करने के लिए मान्यता प्रदान की गई है। यह दुर्दशा लगभग हर महिला अपने जीवन काल में ज़रूर झेलती है।

पुरुष समाज दोषी

कुछ महिलाएं अपनी स्थिति साझा कर लेती हैं, तो कुछ अपने दिल में दबा लेती हैं। किसी भी महिला ने कभी किसी पुरुष पर हाथ उठाने की हिम्मत नहीं की होगी। हिम्मत तो छोड़िए, ऐसा करने के लिए सोचा भी नहीं होगा।

घर-समाज का दूषित वातावरण और औरतों के मनोबल को कम आंकना इसकी वजह है। उनके आत्मविश्वास को बिल्कुल क्षीण करने की ज़िम्मेदारी मैं सीधे तौर पर पुरुष समाज को ही देता हूं।

महिलाएं शारीरिक प्रताड़ना क्यों झेलें?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

वे ‘थप्पड़’ क्यों खाएं? यही थप्पड़ अगर पुरुषों के चेहरे पर रसीद दिया जाए तो कैसा महसूस होगा? मार तो मार होती है! बाल खींचना और डंडे या लाठी से मारना अत्यंत भयानक है लेकिन चेहरे पर मारा गया ‘थप्पड़’ सिर्फ चेहरे पर ना लगकर, ना जाने आत्मा के कोने-कोने तक को झकझोर कर रख देता है।

परिणामस्वरूप आत्मसम्मान निहित होता है। ऐसा लगता है यह मेरी इज़्जत का आखरी दिन था। मैं यकीन के साथ कह सकता हूं। महिलाओं की मनोदशा बिल्कुल ऐसी ही होती होगी मगर इसके उलट अगर वही थप्पड़ वे उस पुरुष के चेहरे पर मार दें तो समाज इसको मारपीट और हिंसा का रूप दे देता है।

फिल्म थप्पड़ का‌ संदेश

अनुभव सिन्हा और मृण्मयी लागू द्वारा लिखी गई एक कहानी, जो आज के समाज में खुद को दबा-कुचला महसूस करने वाली औरतों के लिए है। यह एक जीवंत प्रस्तुति है, जिसका शीर्षक ही ‘थप्पड़’ है। इस कहानी को दिशा देने वाली मृण्मयी लागू, खुद एक महिला हैं और उनकी इस पहल ने भारत में रह रहीं सैकड़ों महिलाओं तक स्वयं द्वारा लिखी गई कहानी से रूबरू करवाया।

मेरे द्वारा यह लेख लिखने का बस एक ही उद्देश्य है कि कहीं-ना-कहीं यह फिल्म समाज में क्रांति लाने के लिए प्रेरित करेगी और महिलाओं को एक संदेश देगी कि अपनी गरिमा के साथ कोई समझौता नहीं, चाहे रिश्ता रहे या ना रहे।

‘थप्पड़’ घरेलू हिंसा के बारे में महज़ एक फिल्म नहीं है, यह उन सारे तथ्यों को उजागर करती है, जिनका एक महिला अपने परिवार और समाज के लिए बलिदान देती है। यह कहानी हर पुरुष को देखनी चाहिए, उसको इस कहानी से बहुत बढ़िया सीख मिलेगी। रही बात महिलाओं की तो उनको भी देखनी चाहिए ताकि उनका मनोबल बढ़े।

पूरी कहानी समाज की जीती-जागती तस्वीर दिखाती है

तापसी पन्नू। फोटो साभार- सोशल मीडिया

फिल्म का एक-एक क्षण सटीक और सार्थक मालूम पड़ता है। कहानी में महिला पात्र तो हैं मगर वे कहीं ना कहीं रूढ़िवादी परंपरा की भेंट चढ़ी हुई हैं। चाहे वह अमृता, सुनीता या फिर सुलोचना आदि ही क्यों ना हों। महिला के रूप में अमृता के अलावा नेत्रा का भी सशक्त पात्र है, जो वकील के किरदार में तो है मगर अंदर ही अंदर एक टूटी हुई माला के बिखरे हुए मोती की तरह महसूस होती हैं।

कहानी में पुरुषों की सोच से प्रेरित होकर कुछ संवाद महिला की छवि को धूमिल करते हैं। यह सच भी है, क्योंकि आज कल के पुरुष महिलाओं को इसी प्रकार आंकते हैं। जैसे-

तुम कौन सी औरत हो?

इसके अलावा क्या महिलाओं के कोई भी रूप नहीं हो सकते हैं? यह भी एक सवाल इस समाज के कालेपन को और बढ़ाता है।

मैंने इस फिल्म का हर पहलू बहुत ही बारिकी से आंका और देखा कि यह कहानी आज के समाज का प्रारूप है। अपने लेख में मैंने कई संवादों का ज़िक्र किया है, जो महिलाओं की समस्याओं को समाज में उजागर करेगा।

उनका घर संभाल लिया और ‌बच्चों का घर बसा दिया

औरतों की सबसे बड़ी समस्या है कि उनकी मानसिकता पर लगातार प्रहार कर उन्हें कमज़ोर बनाने की कोशिश की जाती है। उन्होंने जीवन में अपने पति और सास-ससुर का घर संभाल लिया और एक काम वाली आया के रूप में घर के सारे काम कर दिए तो उनको लगता है कि उनका जीवन सम्पूर्ण हो गया। समाज ने सदियों से महिलाओं पर जो हुक्म चलाया है, उसे शानदार तरीके से इस फिल्म के ज़रिये रुपहले पर्दे पर उतारा गया है।

बाकी कोई कसर रह जाती है तो वे अपने बच्चों की शादी कर यह सोचती हैं जैसे उन्होंने जीवन का सबसे कठिन कार्य कर लिया। इस बीच ध्यान रखने वाली बात यह है कि उन्होंने खुद के लिए क्या किया? कुछ भी नहीं! शून्य! खाना, बच्चों की पसंद का, कपड़े पति की पसंद के और रही बात खुद के अस्तित्व की तो उसे काफी पहले ही मिटा दिया जा चुका होता है।

रिश्ते बनाने में ना समय लगता है और ना कोई श्रम लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए हमको एफर्ट्स की आवश्यकता होती है। ज़रूरी नहीं है कि दो लोगों की सोच आपस में मेल खाती हो या साथ पसंद ना हो परंतु रिश्तों को समय देना चाहिए जिससे उसको फलने-फूलने के लिए उत्तम वातावरण मिल सके।

पैसा मैं कमा लूंगी मगर क्या तुम घर चलाना और खाना बनाना सीख लोगे?

अमृता( तापसी) द्वारा बोला गया यह कथन सटीक मालूम पड़ता है। किसी भी पुरुष से कमिटेड होने से पहले महिलाओं को पुरुषों से यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या दोनों मिलकर घर का काम करने के लिए तैयार होंगे? वैसे, व्यक्तिगत तौर पर मैं भी इस बात के पक्ष में हूं।

पूरी कहानी में महिलाओं के कई पात्रों को इंगित किया गया है, जो आज के समाज की ज़रूरत है। महिलाओं को कभी भी किसी के प्यार में इतना अंधा होने की ज़रूरत नहीं है जिससे उन्हें पीटने और थप्पड़ मारने की आज़ादी मिल जाए।

महिलाओं को मज़बूत होने की ज़रूरत है। अच्छी ज़िंदगी और अच्छा घर ही काफी नहीं हैॉ। जीवन में सम्मान, प्रतिष्ठा और खुशियां भी मायने रखती हैं। जहां सम्मान की कमी होती है, वहां जीवन व्यतीत करना व्यर्थ है।

कहानी का पुरुष पात्र जब खुद की स्थिति की ओर गौर कर अपने ऑफिस के जीवन के लिए बोलता है कि जिस जगह मेरी वैल्यू नहीं, मैं उस कंपनी में काम नहीं कर सकता। क्यों? क्यों नहीं कर सकते?

जब आप अपनी पत्नी के लिए इस तथ्य को परिवार में लागू नहीं कर सकते हैं, तो ऑफिस में क्यों? कार्य तो आप कहीं भी कर सकते हैं लेकिन क्या परिवार को दोबारा स्टैंड कर सकते हैं? कभी नहीं।

फिल्म हर वर्ग के लोगों को देखनी चाहिए

हिंसा से कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला है, क्योंकि अंत में आपको सिर्फ हार और निराशा ही मिलेगी। महिलाओं को प्रेम के दायरे से बाहर नहीं रखना चाहिए। उन्हें सम्मान तो देना ही चाहिए और साथ ही साथ आज़ादी भी।

खुद को इतना बुलंद करो कि आपके सामने अगर ऐसी स्थिति भी आए तो आप अपने खुद के कदमों पर खड़ी हों, किसी विक्रम या राकेश के नहीं। महिलाएं सीख लें अगर उन पर भी हिंसा हो तो वे भी अपने पति का वही हाल करें जो अमृता ने विक्रम का किया।

औरत प्यार और सम्मान की जननी है, जिसे पवित्र प्रेम से जीता जा सकता है। अगर आपने किसी भी महिला को जीत लिया तो वास्तव में आपने जीवन जीत लिया।

Exit mobile version