Site icon Youth Ki Awaaz

“अच्छे अंक लाने का भार इतना था कि मैं परीक्षा के दौरान ही रोने लगी”

Student in library

Student in library

आम तौर पर भारत में त्योहारों और जन्मदिनों के अलावा अगर कोई चीज़ हर साल होती है, तो वो है परीक्षाएं। परीक्षाएं अपने साथ खूब सारी मेहनत और तनाव लेकर आती हैं।

अपने अनुभवों की बात करुं तो मुझे नर्सरी स्कूल में एडमिशन के दौरान पूछे गए सवाल भी आज तक याद हैं। क्यों और कैसे? पता नहीं लेकिन याद हैं। शायद यह इस बात का परिचायक है कि कैसे परीक्षाओं ने उनके तनाव ने मेरे मस्तिष्क में अपना एक खाना ही बना रखा है।

मुझे याद है कि एक हाथ पापा के हाथ में और दूसरा मम्मी के हाथ में डाले साल 2001 में मैं एक प्राइवेट स्कूल के नर्सरी कक्षा में दाखिले के लिए जा रही थी। मुझे लगातार समझाया जा रहा था, “बेटा जितना सिखाया है, सब वहां भी बताना। नहीं बताओगी तो नया बैग और यूनिफॉर्म नहीं मिलेगा।”

मैंने नए बैग के लालच में शायद जवाब दे दिए। हालंकि आज भी हंसी-मजाक में मम्मी कहा करती हैं कि मैंने गुलाबी रंग को लाल कहा था और कहां रहते हो वाले प्रश्न का जवाब ‘घर में’ दिया था।

अवंतिका, स्टूडेंट

परीक्षाएं मेरे साथ तीन साल ही उम्र से हैं जबसे मैंने स्कूल जाना शुरू किया। हर साल फरवरी मार्च आते-आते घर का माहौल बदलने लगता था। पापा फटकार लगाते थे सुबह 4 बजे उठ के पढ़ने के लिए। तब पढ़ना मेरे लिए सिर्फ रटना था।

मेरे लिए एक होशियार स्टूडेंट वही होता था जो ज़्यादा रटने की क्षमता रखता था। हो सकता है कि आपकी चित्रकारी बेहतरीन हो, आप किसी खेल में अव्वल हों लेकिन अगर आप पांच बार दोहराने के बाद भी जवाब याद नहीं कर पाए, तो मेरे लिए कम-से-कम 5वीं कक्षा तक आप मेरे लिए एक मूर्ख इंसान थे। तब तक 5 बार हर जवाब दोहरा लेना ही मेरे लिए पढ़ाई थी।

स्कूल में मैंने ‘अच्छा’ किया। जितना कहा जाता था, करती थी। स्कूल जाने में रोती नहीं थी। टिफिन पूरा खत्म करती थी। 50 बच्चों की क्लास में टॉप 3 नहीं तो टॉप 5 में आ जाती थी। सारे विषयों में 90 से ऊपर ही अंक आते थे। अपनी दीदी और छोटे भाई से ज़्यादा आते थे। दोस्ती भी अच्छी थी क्लास में।

हर साल के अंत में स्टेज पर पापा, क्लास टीचर और प्रिंसिपल के साथ एक ट्रॉफी और प्रमाण-पत्र के साथ तस्वीर मिल जाती थी। पापा भी खुश होते थे। घर लाके ट्रॉफी और प्रमाण-पत्र मैं टीवी के ठीक ऊपर सजा देती थी। कोई भी घर आता जाता तो उन्हें दिखाए बिना जाने नहीं देती थी। मम्मी पसंद का खाना बनाती। मुझे मन्दिर लेके जाती। घर में मिठाई, आइसक्रीम आ जाती। सब परफेक्ट-सा लग रहा था।

नर्सरी के उस दाखिले वाले इंटरव्यू के बाद मुझे परीक्षा संबंधी तनाव 5वीं में महसूस हुआ। हमारे स्कूल में 5वीं कक्षा से संस्कृत पढ़ाई जाती थी। शुरु के पांच-छह पाठों में बहुत ही बेसिक शब्दार्थ जैसी चीज़ें थीं लेकिन जब पहली बार पाला शब्दरूप से पड़ा, हालत खराब हो गई।

यूनिट टेस्ट (जो कि आज कल मिड टर्म हो चुका है) में बालक का शब्दरूप आना तय था। मुझे समझ ही नहीं आया था कि इससे प्रश्न कैसे पूछे जाते हैं। मैंने वही किया जो मुझे आता था। रटना। खैर, वह भी आसान नहीं था।

बीसों बार दोहराने के बाद भी मुझे शब्दरूप याद नहीं हो रहा था। मैं फूट-फूट कर रोने लगी। गोद में संस्कृत की नोटबुक थी और उसपर टपकते मेरे आँसू। मम्मी ने देखा तो समझाया कि मेहनत बेकार नहीं होती कभी। मैंने मेहनत की भी। मुझे शब्दरूप याद भी हो गया।

सुबह टेस्ट में उसके उपयोग से सम्बंधित प्रश्न आए जो कि मेरी समझ से बिलकुल बाहर थे। मैं फिर रोने लगी। पूरी क्लास में शान्त थी। सब अपने अपने जवाब लिख रहे थे लेकिन 5 नम्बर के उस प्रश्न के लिए मैं इतना रोई कि बाकी का पेपर भी बर्बाद हुआ।

25 में से 12 अंक मिले। शायद अपमान उस दिन पहली बार समझ आया। शायद पहली बार हार का सामना किया। शायद पहली बार गुमान टूटा कि मैं भी गलती कर सकती हूं । उस दिन पहली बार लगा रटना काफी नहीं है।

मैं 12 साल की थी। एक 5 नम्बर के प्रश्न से मैं इस कदर तक परेशान हुई कि पता नहीं क्या-क्या सोच लिया था। मैंने घर में पहली बार अपने अंक नहीं दिखाए थे। पापा रोज़ पूछते थे कब मिलेगी कॉपी और मैं कोई बहाना बना देती थी।

लगता था अब पापा मुझे पहले जितना प्यार नहीं करेंगे। अपने दोस्तों के बीच मेरी बड़ाई नहीं करेंगे। अब मम्मी मेरे लिए मेरी पसंद का खाना नहीं बनाएंगी। ना ही मेरे पास मन्दिर जाने का कोई कारण होगा। दोस्तों से दूर हो जाऊंगी।

आखिर कौन एक गधी लड़की से दोस्ती रखना चाहेगा। मैं भी तो कम अंक पाने वालों से बात नहीं करती थी। अब शायद मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार होगा और होना भी चाहिए क्योंकि मैं अब मूर्ख हो चुकी थी।

आज यह सब याद करते हुए लिखते हुए मेरे अंदर एक अपराधबोध है। मेरे जैसे लाखों करोड़ों बच्चों ने कम अंकों को मूर्खता का परिचायक मान कर जी तोड़ मेहनत की है। मूर्ख ना कहलाने का प्रण इतना भारी था कि हमें अंकों के अलावा और कुछ समझ ही नहीं आता था।

अच्छा करने की होड़ इतनी ज़्यादा थी कि दिमाग में बस एक ही सिस्टम बैठ गया था- अच्छे अंकों के साथ साल खत्म करना। क्यों ज़रूरी हुए अच्छे अंक? कैसे हुए? ना तब समझ आया और ना अब, लेकिन इनका असर आज भी है और शायद हमेशा कहीं-न-कहीं रहे।

अच्छे नंबर लाने की मानसिकता हम सबके अंदर बचपन से ही इस कदर भर दी जाती है कि हमें उससे बेहतर शायद कुछ लगता ही नहीं है।इसका असर हम पर  इतना धीरे-धारे और व्यवस्थित तरीके से होता है कि आज बहुत चाहने पर भी इसको पूरी तरह से यह हमारे पढ़ाई और सीखने की प्रक्रिया के बीच से निकल नहीं पाया है।

Exit mobile version